Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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- ३.२० )
सिद्धान्तसार:
(५३
हिसां धर्मं वदनेवं' हिंसा मङ्गलमुत्तमम् । हिंसा शान्तिकरा तस्य हिंसयोद्भूतदुर्मतेः ॥ १८ मूढात्मानो न जानन्ति कार्यकारणनिर्णयम् । मन्त्रपूतां वदन्त्येव हिंसां सद्धर्मकारिणीम् ॥ १९ अमन्त्रपूतां पापैकहेतुभूतां वदन्त्यमी । यदि तां प्रवर्तयेन्मन्त्रः पापात्मा च कथं न हि ॥ २०
संस्कारोंसे भरा हुआ इस भूतलपर जन्म धारण करता है । तथा कुधर्म में मुख्यतासे तत्पर होकर प्राणियों का यज्ञादिरूपसे घात करता है ॥ १७ ॥
हिंसा से जिसको दुर्बुद्धि उत्पन्न हुई है, ऐसे उस मनुष्यको कई कुबुद्धि लोग “ हिसा शांति करनेवाली है, हिंसा उत्तम मंगल है, और हिंसा धर्म है " ऐसा उपदेश देते हैं ।। १८ ।।
कितनेही मूढात्मा कार्यकारणका निर्णय नहीं जानते हैं और मंत्रसे जब हिंसा पवित्र होती है तब वह सद्धर्मको उत्पन्न करती है " ऐसा कहते हैं । स्पष्टीकरण - कई कहते हैं, कि " जो हिंसा वेदमंत्र के बिना की जाती है, वह रागादिकोंका हेतु होती है और जो हिंसा वेदविहित है। वह शांतिके लिये है । उससे शांति मिलती है, उसमें क्रोधादिकोंका उदय नहीं होता है ।" यह किसीका वचन अयुक्त है । क्योंकि वेदमंत्र से की गई हिंसा शांतिको नहीं उत्पन्न करती है । अन्यथा ' मातरमुपेहि स्वसारमुपेहि ' इस वेदवाक्यसे उत्पन्न हो गई मातृसमागमकी और भगिनीसमागमकी प्रवृति शांतिका कारण होगी । तथा जो वेदविहित नहीं है ऐसे सत्पात्र कार्य दानादि शांति के प्रतिपक्ष हो जायेंगे । वेदविहित कार्य परम्परासे शांति करनेवाले हैं यह कहनाभी योग्य नहीं है । वेदविहित हिंसा परम्परासेभी शांति हेतु नहीं होती है । जो शांति चाहते हैं, वे शांति प्रतिकूल हिंसादिकोंमें प्रवृत्त होंगे तो वे विद्वान् कैसे कहलावेंगे ? इससे तो मदके नाशार्थ मदिरापान में लोग प्रवृत्ति करेंगे ॥ १८ ॥ ( युक्त्यनुशासन श्लो. ३८ )
"
" सत्पात्रदान, देवतार्चनादि कार्योंमें जो सूक्ष्म जीवोंका नाश होता है, वह परम्परासे शांतिका कारण होता है क्योंकि वह संकल्प करके नहीं किया जाता हैं । उसमें दर्शन विशुद्धि और परिग्रहपरित्यागकी प्रधानता है । इसलिये वह शांतिहेतु होता है । चैत्यालय बंधवाना, शिल्पकारसे जिनप्रतिमा करवाना आदिकमें प्रमत्तयोग होनेसे प्राणिहिंसा होती है ऐसा समझना अयोग्य है । चैत्यालय जिनप्रतिमादिक कार्य करनेमें प्रमत्तयोग नहीं है, क्योंकि वह कार्य सम्यक्त्ववर्धन करनेवाला है । अतः पाप कारणभी नहीं है ॥ १९ ॥ ( युक्त्यनुशासन श्लो. ३८ की टीका )
" जो हिंसा मंत्रसे पवित्र नहीं है वह मुख्यतासे पापकाही कारण है ऐसे याज्ञिक लोग कहते हैं | आचार्य इसका इस प्रकार खण्डन करते हैं- “यदि मंत्र हिंसाको कहता है तो पशुवध करनेवाला वह मंत्र पापात्मा क्यों नहीं है ? अर्थात् हिंसाको करनेवाला मंत्र भी पापमंत्रही समझना
१ आ. वदत्येवं २ आ. हिंसोद्भूतसुदुर्भतेः ३ आ. वदन्त्ये के ४ आ. प्रवर्तयत्रेष मन्त्र :
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