Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सिद्धान्तसारः
(२. १७७
सोऽनवस्थित इत्येवं कथितस्तथ्यवेदिभिः । जिनेन्द्रजितकौघरघविध्वंसकारिभिः ॥ १७७ देशावधिः प्रपूतात्मा द्वितीयः परमावधिः । सर्वावधिस्तृतीयोऽसौ देशाद्यर्थप्रदर्शकः ॥ १७८ । देशावधिस्तु सर्वेषां परौ चान्त्यैकदेहिनाम् । महर्षीणां मतौ पूतौ स्वामित्वमिति निश्चितम् ॥१७९ परमानसगार्थस्य पर्ययणादिदं महत् । मनःपर्ययविज्ञानं ज्ञायते ज्ञानकोविदः ॥ १८० तद्भेदावृजुवैपुल्यमती मतिमतां मतौ । मनःपर्ययविज्ञानं गतौ' साधुगतिप्रदौ ॥ १८१
वैसे यह अवधिज्ञान कमजादा होता है। इसलिये जिन्होंने कर्मसमूहपर विजय पायी है और पापविनाश जिन्होंने किया है, जो सत्य पदार्थ स्वरूप जानते हैं ऐसे जिनेंद्र भगवानने इसे अनवस्थित अवधिज्ञान कहा है ॥ १७६-७७ ।।
( अवधिज्ञानके तीन भेद।) - पहिला पवित्र देशावधिज्ञान, दूसरा पवित्र परमावधिज्ञान और तीसरा पवित्र सर्वावधिज्ञान ऐसे इसके तीन भेद हैं और ये देशादि अर्थोको प्रगट करनेवाले हैं । देशावधिज्ञान चारों गतियोंके संज्ञीपर्याप्तक प्राणियोंको उत्पन्न होता है। परमावधि और सर्वावधि ये दो पवित्र अवधिज्ञान चरमशरीर-धारक महर्षियोंको होते हैं। इस प्रकार अवधिज्ञानके स्वामित्वका निश्चय किया है ।
तात्पर्य-देशावधिज्ञान मनुष्यको असंख्यात द्वीपसमुद्रोंको जाननेवाला होता है। उसका कालभी असंख्यात वर्षोंका होता है। द्रव्य-कार्मणद्रव्य विषय होता है । यह अवधिज्ञान शंख, कमल आदिक शरीरलांछनोंसे जोकि नाभिके ऊपर भागपर रहते हैं उनसे उत्पन्न होता है । तथा जो विभंगावधिज्ञान है, वह नाभिके नीचे गिरगिट, मर्कट आदि चिन्होंसे उत्पन्न होता है । इसप्रकार अवधिज्ञानका वर्णन हुआ है ।। १७८-१७९ ॥
(मनःपर्ययज्ञानका स्वरूप। )- अन्य व्यक्तिके मनमें स्थित पदार्थको जाननेसे यह मनःपर्ययज्ञान महान् है ऐसा ज्ञाननिपुण आचार्य जानते हैं । भावार्थ-मनःपर्ययज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे संस्कृत अपने मनके द्वारा अन्य व्यक्तिके मनका जो पदार्थ चिन्तन किया जाता है, अथवा चिन्तित हुआ होगा अथवा चिन्तन किया जायगा ऐसे पदार्थको मुनि जानते हैं। उसके जाननेका नाम मनःपर्यय है । यह ज्ञान मतिज्ञान नहीं है क्योंकि मतिज्ञानावरण क्षयोपशमयुक्त मन इस पदार्थको नहीं जानता है । वह मतिज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है। परंतु यह मनःपर्ययज्ञान प्रत्यक्ष है। मनःशब्दका अर्थ मनमें स्थित जो भाव-पदार्थ अर्थात् वस्तु विषयक विचार उसे मन कहना चाहिये । उसे पर्ययण-स्पष्ट जानना मनःपर्यय कहते हैं ।। १८० ॥ .
( मनःपर्ययके दो भेद। ) - इस मतिज्ञानके ऋजमति और विपुलमति ऐसे दो भेद बुद्धिशाली आचार्योके मान्य हैं। और ये दोनों मनःपर्ययके लक्षणको प्राप्त हुये हैं तथा शुभगति देनेवालें हैं ॥ १८१ ॥
१ आ. विज्ञानगतौ
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