Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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४८)
सिद्धान्तसारः
(२. २०४
ज्ञानं चारित्रमूलं श्रयति बुधजनो ज्ञानमेवाद्य तत्त्वम् ।
ज्ञानेनोच्चैः पदं तद्भवति नम इति ज्ञानतत्त्वाय तस्मै ॥ ज्ञानान्मोक्षस्तु तुल्यं भवति न हि पुनर्ज्ञानमानस्य किञ्चित् ।
ज्ञाने बुद्धि तदस्माद्विदधत विबुधाः साधु वन्येऽनवद्याम् ॥ २०४ इति श्रीसिद्धान्तसारसंग्रहे पण्डिताचार्यनरेन्द्रसेनविरचिते'
सम्यग्ज्ञाननिरूपणो द्वितीयः परिच्छेदः ॥
( ज्ञान शब्दका सात विभक्तियोंमें प्रयोग कर उसका महत्त्व आचार्य दिखाते हैं ।)यह सम्यग्ज्ञान चारित्रका मूल है अर्थात् सम्यग्ज्ञानसे चारित्रका स्वरूप ज्ञात होता है जिससे वह धारण करने में और उसके पालनमें महती सहायता प्राप्त होती है। इसलिये बुद्धिमान लोग जीवादि पदार्थोंको जानने में मुख्य उपाय भूत सम्यग्ज्ञानका अवलंब करते हैं, ज्ञानही पहिला तत्त्व है । इस सम्यग्ज्ञानसे उच्च पदकी प्राप्ति होती है । इसलिये इन ज्ञानतत्त्वको हम नमस्कार करतें हैं । इस ज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। सम्यग्ज्ञानरूपी जो प्रमाण है, उसकी समानताको कोईभी प्राप्ति नहीं कर सकता । अतः हे विद्वद्गण यतिसमूहसे वन्दनीय इस ज्ञानमें आप अपनी बुद्धि स्थिर करें ॥ २०४ ।।
पण्डिताचार्य नरेन्द्रसेनविरचित श्रीसिद्धान्तसारसङग्रहमें सम्यग्ज्ञानका निरूपण करनेवाला
दूसरा परिच्छेद समाप्त हुआ।
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१ आ. पण्डित इति नास्ति २ आ. सम्यग्ज्ञाननिरूपणो इति नास्ति ।
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