Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-२. १९७)
सिद्धान्तसारः मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमोषद्धर्मेषु वस्तुष । वर्तते विषयत्वेन रूपिष्वेवावधिर्मतः ॥ १९७
अकर्मभूमिजोंमें-भोगभूमि और म्लेच्छादिकोंमें उत्पन्न नहीं होता है। कर्मभूमिजोंमेंभी, पर्याप्तकोंमेंही उत्पन्न होता है, अपर्याप्तोंमें नहीं। पर्याप्तकोंमेंभी जो सम्यग्दृष्टि हैं उनमें उत्पन्न होता है मिथ्यादृष्टियोंमें, सासादन सम्यग्दृष्टियोंमें और सम्यङमिथ्यादृष्टियोंमें नहीं। सम्यग्दृष्टियोंमेंभी वह मुनियोंमेंही उत्पन्न होता है, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंमें उत्पन्न नहीं होता । संयतोमेंभी प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषायान्त उत्पन्न होता है । उत्तरगुणस्थानोंमें सयोग अयोगगुणस्थानोंमें नहीं मिलता है। प्रमत्त संयतादि गुणस्थानोंमें जो मुनि प्रवर्द्धमान चारित्रवाले होते हैं, उनमें वह ज्ञान होता है । हीनचारित्रोंमें नहीं होता है। प्रवर्द्धमान चारित्रवालोंमेंभी सात प्रकारकी ऋद्धियोंमेंसे जिनको कोई ऋद्धि प्राप्त हुई है, उनको मनःपर्यय प्राप्त होता है । ऋद्धिप्राप्तोंमेंभी सबको प्राप्त नहीं होता है। किसी एककोही प्राप्त होता है। अवधिज्ञान तो चतुर्गतिके जीवोंको प्राप्त होता है । अतः स्वामिभेदसे इनमें भेद है । अवधिज्ञानका क्षेत्र बडा है। विषयकी अपेक्षासे–अवधिज्ञानके विषयसे मनःपर्ययज्ञानका विषय अत्यंत सूक्ष्म है। इस प्रकार क्षेत्र, स्वामी और विषयकी अपेक्षासे इन दो ज्ञानोंमें विशेषता व्यक्त की है ॥ १९५ ॥
(केवलज्ञानका स्वरूप और उसका विषय)- संपूर्ण ज्ञानावरण कर्मका क्षय होनेसे लोकको और अलोकको प्रकाशित करनेवाला उत्तम केवलज्ञान उत्पन्न होता है । वह अकेलाही रहता है। उसके साथमें अन्य सब ज्ञान नहीं होते है ।। १९६ ।।
( मतिज्ञानादिक पांच ज्ञानोंके विषय।)- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये द्रव्योंके कुछ पर्यायोंको विषय करते हैं और अवधिज्ञान रूपीपदार्थोंको विषय करता है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल इन षड्द्रव्योंके कुछ पर्याय मति और श्रुतज्ञानके विषय होते हैं । सब पर्याय इनके विषय नहीं होते हैं । क्योंकि मतिज्ञान इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है और इन्द्रियां रूपरसादिक पर्यायोंको ग्रहण करती हैं । संपूर्ण पर्यायोंको ग्रहण करने में वे असमर्थ होती हैं। श्रुतज्ञान शब्दसे उत्पन्न होता है और शब्द सर्व संख्यातही होते हैं और द्रव्योंके पर्याय असंख्यात अनंत होते हैं वे सब विशेषाकारोंसे शब्दोंद्वारा नहीं ग्रहण किये जाते हैं।
विशेषार्थ :- धर्मादिक द्रव्य अतीन्द्रिय होनेसे उसमें मतिज्ञान कैसे प्रवृत्त होगा? इसलिये उसके सर्व द्रव्य विषय मानना योग्य नहीं है? यह कहना ठीक नहीं है? क्योंकि नोइंद्रियावरण कर्मकी क्षयोपशमलब्धिकी अपेक्षासे नोइंद्रिय मन धर्मादिकोंमें प्रवृत्त होता है । यदि वह उनमें प्रवृत्त न होता तो अवधिज्ञानके साथ उसका उल्लेख करना पडता । नोइंद्रियावरण कर्मके
१ आ. रूपिष्ववधि
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