Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सिद्धान्तसारः
( २. १४८
दोषाणां स्थूलसूक्ष्माणां प्रायश्चित्तं प्ररूपयत् । अशीतिगं' प्रकीर्णं तद्वयः सत्त्वाद्यपेक्षया ।। १४८ अङ्गाङ्गबाह्यभेदा ये श्रुतस्यावगता मया । प्रोक्ताः स्वबुद्धितः सर्वे यच्छन्तु विपुलां श्रियम् ॥ १४९ परं विशतिभेदं यत्पर्यायाद्यभिधानतः । श्रुतं तदपि वक्ष्येऽहं यथाशक्ति यथागमम् ॥ १५० पर्यायश्चाक्षरं ज्ञानं पदं संघात इत्यपि । प्रतिपत्त्यनुयोगाभ्यां विकल्पाः षडमी श्रुते ॥ १५१ प्राभृतप्राभृतं प्राभृद्वस्तु पूर्वं चतुर्थकम् । इत्येवं मिलिताः सर्वे विकल्पा दश शोभनाः ।। १५२ तेषां समासभेदा ये तावन्तः परिकीर्तिताः । तैः समस्तैर्भवेत्सर्वं श्रुतं विंशतिभेदभाक् ।। १५३ नित्यनिगोदजीवस्यापर्याप्तस्यादिमक्षणे । जायते यच्च विज्ञानं तत्पर्याय इति श्रुतम् ॥ १५४
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पुरुषोंकी आयु, शक्ति, उनका प्रमाद, अथवा ज्ञाताज्ञातादिक भाव इनकी अपेक्षासे स्थूल और सूक्ष्म दोषोंका प्रायश्चित्त निरूपण करनेवाले प्रकीर्णकको ' अशीतिग कहते हैं ।। १४८।।
श्रुतज्ञानके जो अंगप्रविष्ट और अङ्गबाह्य के भेद मैंने जाने हैं वे अपनी बुद्धि अनुसार सर्व कहे हैं, वे मुझे विपुल अनंतज्ञानादि लक्ष्मीको देवें ।। १४९ ।।
( श्रुतज्ञान के वीस भेद ) उत्तम श्रुतज्ञानके पर्याय, पर्याय समास आदि वीस भेद हैं । मैं यथाशक्ति यथामति और आगमानुसार उसका भी वर्णन करता हूं ॥ १५० ॥
पर्यायश्रुत, अक्षरश्रुत, पदश्रुत, संघातश्रुत, प्रतिपत्तिश्रुत, अनुयोगश्रुत ऐसे श्रुतज्ञान में छह विकल्प हैं । प्राभृत, प्राभृतप्राभृत, वस्तु, और चौथा भेद पूर्व ये और ऊपर के हितकर सर्व भेद मिलकर दस भेद श्रुतज्ञानके हैं। इन दस भेदोंके समासभेदभी उतनेही कहे हैं । और उन संपूर्ण भेदोंसे यह श्रुतज्ञान वीस भेदवाला होता है । उनके नाम इस प्रकार हैं- पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोग, अनुयोगसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृत-प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व, पूर्वसमास ।। १५१-१५३ ।।
( पर्याय नामक श्रुतज्ञान किसे होता है ? ) अपर्याप्त नित्य निगोदका जो जन्मका प्रथम क्षण उसमें जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे पर्यायश्रुत कहते हैं । वह श्रुतज्ञान सबसे जघन्य है, परंतु वह हमेशा प्रकाशयुक्त प्रगट होता है, उसके ऊपर कदापि आवरण आता नही। जगदीश्वर अर्थात् जिनेश्वर उसके ज्ञानको जानते हैं । तात्पर्य - पर्यायावरण कर्मके उदयका फल पर्यायज्ञानमें हो जाय तो ज्ञानोपयोगका अभाव होनेसे जीवकाभी अभाव हो जायगा । इस लिये पर्यायावरण कर्मका फल उसके आगे के ज्ञानके प्रथम भेदमेंही होता है । इसलिये कमसे कम पर्यायरूप ज्ञान जीवके अवश्य पाया जाता है । तथा वह ज्ञान हमेशा निरावरण और प्रकाशमान रहता है। सूक्ष्म निगोदी
१ आ. अशीतिकम् । २ आ. नित्यं
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