Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-२. १५९)
सिद्धान्तसारः
सर्वज्ञानजघन्यं तत्सुप्रकाशं निरावृति' । निरावृतपरिज्ञानो जानाति जगदीश्वरः ॥ १५५ तदेवासंख्यभागेन वर्धमानं ततः परम् । प्रागक्षरश्रुतात्सर्व पर्यायादिसमासभाक् ॥ १५६ एकाक्षरस्य विज्ञानमक्षरश्रुतमुच्यते । द्वित्राद्यक्षरवृद्धया तु तत्समासं पदावधि ॥ १५७ पदज्ञानं भवेत्तद्धि यत्रिधा पदसंभवम् । पदादक्षरवृद्धया तु समासपदपूर्वकम् ॥ १५८ संघातः कथ्यते पथ्यः सहस्रैकपदप्रमः । तत्समासस्तु विज्ञेयः प्रतिपत्त्यवधिर्बुधैः ॥ १५९
लब्ध्यपर्याप्त जीवके अपने २ जितने भव (छह हजार बारह) संभव हैं उनमें भ्रमण करके अन्तके अपर्याप्त शरीरको तीन मोडोंद्वारा ग्रहण करनेवाले जीवके प्रथम मोडेके समय जघन्य ज्ञान होता. है ॥ १५४-१५५ ॥
( पर्यायसमासश्रुत )- सूक्ष्मनिगोदी लब्ध्यपर्याप्तिक जीवको जो पर्यायश्रुत ज्ञान है वही असंख्यात भागसे बढता बढता जाता है, तब उसमें असंख्यात स्थान बढते हैं, तब एक अक्षर श्रुतज्ञान होता है । उसके पूर्व और पर्यायश्रुत ज्ञानके ऊपर जितने ज्ञानके भेद होता हैं, वे सब पर्यायसमास ज्ञान कहलाते हैं । १५६ ॥
(अक्षरश्रुत)- एक अक्षरका जो ज्ञान उसे अक्षरश्रुत कहते हैं । इसके ऊपर दो अक्षरज्ञान बढता है, तीन अक्षरज्ञान बढता है, ऐसी अक्षरज्ञानोंकी वृद्धि पदज्ञानके पूर्वतक होती है। यह लब्ध्यक्षरज्ञान सूक्ष्मनिगोदी अपर्याप्तक जीवके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें स्पर्शन इन्द्रिजन्य मति ज्ञानपूर्वक होता है । लब्धिनाम श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमका है और अक्षर नाम अविनश्वरका है इसलिये इस ज्ञानको लब्ध्यक्षर कहते हैं । क्यों कि इस क्षयोपशमका कभी विनाश नहीं होता है, कमसे कम इतना क्षयोपशम जीवके रहता ही है । एक अक्षरके ऊपर जो पदतक ज्ञान बढता है, उसे अक्षरसमास ज्ञान कहते हैं। अन्तिम अक्षर समासके ऊपर एक अक्षर बढनेपर पदनामक ज्ञान उत्पन्न होता है ।। १५७ ॥
( पद तथा पदसमास)- जो ज्ञान तीन प्रकारके पदोंसे उत्पन्न होता है, उसे पदज्ञान कहते हैं । वे पद तीन हैं-अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद (इनका वर्णन पहले आया है)। इस पदज्ञानके जो एकाक्षरादि वृद्धि होती है वह सब पद समास ज्ञान समझना चाहिये । इस तरह अक्षरोंकी वृद्धि होते होते दुसरा पदज्ञान होता है । तदनंतर तीसरा, चौथा, पांचवा ऐसे पदज्ञान होते होते पदके ऊपर और संघातके पूर्व जितने ज्ञानके भेद होते हैं वे सब पदसमासके भेद समझने चाहिये ॥ १५८॥
( संघात और संघातसमास)- एक हजार पदप्रमाण ज्ञानको हित करनेवाला संघातज्ञान कहते हैं। इसके अनंतर अर्थात् संघातज्ञानके अनंतर और प्रतिपत्ति नामक श्रुतज्ञानके पूर्व जितने ज्ञानके
१ आ. निरावृतं
२ आ. द्वित्र्या.
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