Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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२०)
सिद्धान्तसारः
(२. ११
मतिज्ञानं भवेत्पूतमिन्द्रियानिन्द्रियोद्भवम् । षट्त्रिंशत्रिशतभेदं भव्यसत्त्वसुखावहम् ॥ ११ अवग्रहेहावायानां धारणायाश्च भेदतः । मतिज्ञानमिदं दिव्यं चतुर्विधमुदीरितम् ॥ १२ सम्यग्ज्ञानार्थयोराद्यसङग्रहोऽवग्रहो मतः । तत्तद्विशेषकाक्षायामीहामीहाविदो विदुः ॥ १३ विशेषव्यवसायात्मा स त्ववायो निगद्यते । अर्थाविस्मृतिरूपं तु धारणाज्ञानमञ्जसा ॥ १४ बहुश्च बहुधा क्षिप्रश्चानुक्तोऽनिसृतो ध्रुवैः । सेतरैश्चापि भिन्नः सोऽवग्रहो द्वादशप्रमः ॥ १५
(मतिज्ञानके कारण और भेद)- मतिज्ञान पवित्र है वह इन्द्रियों और मनसे उत्पन्न होता है। उसके तीनसौ छत्तीस भेद हैं और वह भव्य-प्राणियोंको सुखदायक है। क्योंकि उससे
प्राप्ति और अहितका परिकार होता है। नेत्रसे घटपटादिका ज्ञान होता है यह नेत्रमतिज्ञान है । स्पर्शनेन्द्रियसे जो पानी, अग्नि आदिका स्पर्श होनेसे ठंडा और उष्ण आदि ज्ञान होता है, उसे स्पर्शमतिज्ञान कहते हैं । इसतरह रसनेन्द्रियादिकसे मधुररसादिकोंका ज्ञान होता है। मनसेभी मतिज्ञान होता है ।। ११ ॥
(मतिज्ञानके चार भेद)- अवग्रह मतिज्ञान, ईहा मतिज्ञान, अवाय मतिज्ञान और धारणा मतिज्ञान ऐसे मतिज्ञानके चार भेद है । सम्यग्दर्शनके साथ उत्पन्न होनेसे इसे दिव्य कहते हैं ॥ १२॥
सम्यग्ज्ञान और पदार्थका जो आद्य-ग्रहण उसे अवग्रहमतिज्ञान कहते हैं। विषय घटादिक पदार्थ और विषयी-उनको ग्रहण करनेवाले स्पर्शनादिक इन्द्रियां इनका संयोग होनेपर जो प्रथमज्ञान होता है, उसको अवग्रह कहते हैं। यह अवग्रह दर्शनपूर्वक होता है । अर्थात् विषय और विषयीका संबंध होनेपर दर्शन-वस्तुका सामान्यवलोकन होता है जिसमें घट, पट इत्यादि प्रकार प्रतिभासित नही होते है । केवल यह कुछ है ऐसा प्रतिभास होता है उसको दर्शन कहते हैं, उसके अनन्तर जो प्रथम ग्रहण होता है वह पहिला अवग्रहज्ञान है । जैसे यह मनुष्य है ऐसा प्रथमज्ञान हुआ । इसके अनन्तर मनुष्यके विशेष जाननेकी इच्छा होनेपर ईहामतिज्ञान होता है, ऐसा ईहाका स्वरूप जाननेवाले आचार्य कहते है। जैसे यह मनुष्य दाक्षिणात्य है या उत्तरीय है अर्थात् दक्षिणदेशका है वा उत्तरदेशका रहनेवाला है ऐसा संशय होनेपर उसके निरसनके लिये यह उत्तरदेशका होगा ऐसी भवितव्यताप्रतीति उत्पन्न होती है उसे ईहामतिज्ञान कहना चाहिये ॥ १३ ॥
ईहामें जिस विशेषका भवितव्यतारूपसे ज्ञान हुआ था उसका जो निश्चय होता है उसे अवाय कहते है। और अवायसे जाने हुए विषयका कालान्तरमेंभी विस्मरण न होना ऐसा जो ज्ञान उसे परमार्थसे धारणामतिज्ञान कहते हैं। जैसे यह मनुष्य उत्तरदेशवासी है ऐसा उसके वेषभूषाभाषादिकसे निर्णय होना अवायमतिज्ञान है। तदनन्तर उस उत्तरदेशवासी मनुष्यको कालान्तरसे देखनेपर पहले देखी, जानी हुई बातको न भूलना यह धारणा-मतिज्ञान है ॥ १४ ॥
(अवग्रह मतिज्ञानके बारा भेद ) - बहुअवग्रह, बहुविधावग्रह, क्षिप्रावग्रह, अनुक्तावग्रह, अनिसृतावग्रह, ध्रुवावग्रह ऐसे छह भेद और उसके विरुद्ध छह भेद होते हैं इसप्रकारसे एकाव
१ आ. त्रिशती २ आ. आद्य: ३ आ. स्त्वनुक्तो
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