Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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२४ )
सिद्धान्तसारः
( २. ३६
यस्यामवगतानेकग्रन्थार्थानामवस्थितिः । अविनष्टाप्रकीर्णानां कोष्ठे संभृतधान्यबत् ॥ ३६ कोष्ठबुद्धिमताशेषविशेषार्थावभासिनी । बीजबुद्धिः पुनर्जेया विविधागमपारगः ॥ ३७ भव्यक्षेत्रे यथा बीजमुप्तं कालादियोगतः । अनेकधा भवेद्वद्धमृद्धिसम्पादकं नृणाम् ॥ ३८ तथैकबीजभतार्थसंग्रहादर्थवशिनी। अनेकधा मता सेयं' बीजबद्धिमहात्मनाम ॥ ३९ एकस्यापि पदस्यादावन्ते ग्रन्थस्य बोधतः । यस्यां ग्रन्थावबोधोऽसौ बुद्धिः पादानुसारिणी ॥४० यत्सामान्यविशेषात्माभेवो भवति चानयोः । अत एवेदमत्युदधं बुद्धिद्वयमुदाहृतम् ॥ ४१ द्वावशयोजनायामचक्रवर्तिचमूध्वनिम् । मनुष्यकरभादीनां संकरादिकजितम् ॥ ४२ यस्यां शृणोति भव्यात्मा निर्मलीकृतमानसः । संभिन्नश्रोतृबुद्धिः सा गीता गानविचक्षणः ॥४३
( कोष्ठबुद्धिऋद्धिका वर्णन )- जैसे भांडागारमें अर्थात् धान्यागारमें गेहूँ, उडद आदि अनेक प्रकारका धान्य नष्ट नहीं हो और आपसमें मिश्र न हो ऐसा अलग अलग स्थापन किया जाता है। वैसे जो ऋद्धि प्राप्त होनेपर जाने गये अनेक ग्रंथोंका अवस्थान, अविनाश और अमिश्रतारूपसे होता है ऐसी बुद्धिऋद्धिको कोष्ठबुद्धि कहते हैं । तात्पर्य यह है, कि अनेक ग्रंथोंका ज्ञान और उनके प्रकरण जो जैसे हैं वैसे कोष्ठबुद्धिवाले मुनियोंके हृदयमें रहते है। कुछ ज्ञान उन ग्रंथोंका नष्ट होना अथवा कुछ किसी विषयमें मिल जाना इत्यादि दोष उनमें नहीं रहते हैं। यह कोष्ठबुद्धि संपूर्ण विशेष अर्थोंको प्रकाशित करनेवाली होती है ॥ ३६-३७ ॥
(बीजबुद्धिऋद्धिका वर्णन )- जैसे उत्तम खेतमें बोया हुआ बीज वर्षाकालादिकके संयोगसे अनेक प्रकारसे वृद्धिको प्राप्त होता है अर्थात् उससे खूब धान्यवृद्धि होती है, एक बीजसे हजारो धान्यके दाने प्राप्त होते हैं, वेसे एक बीजाक्षरसे उत्पन्न हुआ जो अर्थसंग्रह उससे अनेक प्रकारके अर्थ यह बीजऋद्धि महात्माओंको दिखाती है। इसप्रकार इसका स्वरूप है ॥ ३८-३९॥
(पादानुसारिणीऋद्धिका स्वरूप ) - ग्रंथके प्रारंभमें एक पद अथवा ग्रंथके अन्तमें एक पदका ज्ञान होनेपर संपूर्ण ग्रंथका ज्ञान ऋद्धिधारक मुनीश्वरको जिससे होता है वह पादानुसारी बुद्धिऋद्धि है ॥ ४० ॥ इस ऋद्धिके सामान्य और विशेष अर्थका प्रतिपादन होता है । अतः इस ऋद्धिको सामान्य पदानुसारिणी और विशेष पदानुसारिणी कहते हैं । ये दो अतिशय उत्तम बुद्धि ऋद्धियां हैं । ऐसा मुनीश्वरोंने कहा है ॥ ४१ ॥
( संभिन्नश्रोतृबुद्धिका वर्णन ) - बारा योजन दूरतक चक्रवर्तिका सैन्य रहता है और उसमें मनुष्य, हाथी, घोडे, ऊंट, बैल आदिकोंके शब्द होते रहते हैं । जिसका अन्तःकरण निर्मल है ऐसा भव्यात्मा उन शब्दोंको संकरादिदोष-रहित अलग अलग जिस ऋद्धिकी प्राप्ति होनेसे सुनता है उसे चतुरोंने संभिन्नश्रोतृबुद्धि नामकी ऋद्धि कहा है । ४२-४३ ॥
१ आ. सैषा २ आ. विवजितम्
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