Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सिद्धान्तसारः
(२.५७
क्रियाविशालमत्युद्धं त्रयोदशकमुत्तमम् । लोकाग्र बिन्दुसारं च ' चतुर्दशकमञ्जसा ॥ ५७ जलस्थलगता मायागता रूपगता तथा । आकाशादिगता चेति चूलिका पञ्चधा स्मृता ॥ ५८ चन्द्रादित्यनदद्वीपव्याख्याप्रज्ञप्तिरुज्ज्वला । जम्बूद्वीपादि प्रज्ञप्तिः परिकर्मापि पञ्चधा ॥ ५९ अष्टादशसहस्त्रा' च पदसंख्या विराजते । यत्याचरणरूपस्य तदाचाराङ्गमिष्यते ॥ ६० ज्ञानादिविनयादीनां क्रियाणां यत्प्ररूपकम् । पदानां च सहस्राणि षत्रिंशत्सूत्रकृन्मतम् ॥ ६१ एकाकोत्तरस्थानं जीवादीनां प्ररूपकम् । स्थानं पदसहस्राणि चत्वारिंशद्विरुत्तरा ॥ ६२
२६)
पवित्र प्राणावायपूर्व बारहवा है । अत्युत्तम क्रियाविशालपूर्व तेरहवा है और परमार्थरूप चौदहवा पूर्व लोकाग्रबिन्दुसार नामका है ।। ५३-५७ ॥
( पंच चूलिकाओंके नाम ) - दृष्टिवादका चूलिका नामकभेद है । इसके पांच भेद हैं। उनके नाम १ जलगता, २ स्थलगता, ३ मायागता ४ रूपगता, और ५ आकाशगता ॥ ५८ ॥
( परिकर्म के भेद ) - चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, नदीद्वीपसागरप्रज्ञप्ति, व्याख्याप्रज्ञप्ति और पांचवी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ऐसे परिकर्मके पांच भेद हैं ।। ५९ ।।
( आचारादिकअङ्गोंकी पदसंख्या ) - मुनियोंके आचरणोंका प्रतिपादन करनेवाले आचाराङ्गकी संख्या अठारह हजार है । भावार्थ - इस अंग में किसप्रकार आचरण करना चाहिये? किस तरह खडा होना चाहिये ? कैसे बैठना चाहिये ? किस प्रकारसे सोना चाहिये ? किस तरह भाषण करना चाहिये ? किस तरह भोजन करना चाहिये ? किस तरह पापका बंध होता है ? इत्यादि प्रश्नोंके उत्तर-यत्नपूर्वक आचरण करें, यत्नपूर्वक खडा हो, यत्नपूर्वक बैठें, यत्नपूर्वक शयन करे, यत्नपूर्वक भाषण करें, यत्नपूर्वक भोजन करें । इस तरहके आचरणसे पापबंध नहीं
होता है । इत्यादि प्रश्नोत्तररूप विवेचन आचारांग में है ।। ६० ।।
सूत्रकृतांगकी पदसंख्या छत्तीस हजार प्रमाण है। इसमें ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय ऐसे विनयोंका तथा ज्ञानविनय आदि निर्विघ्न अध्ययनका अथवा प्रज्ञापना, कल्पाकल्प, छेदोपस्थापना आदि व्यवहारधर्मोका तथा स्वसमय और परसमयों का स्वरूप सूत्रोंद्वारा बताया है ॥ ६१ ॥
स्थानांग में बियालीस हजार पदोंकी संख्या है । इस अंग में संपूर्ण द्रव्योंके एकसे लेकर अनेक विकल्पोंका प्रतिपादन किया है । जैसे सामान्यकी अपेक्षासे जीव- द्रव्यका एकही विकल्पस्थान होता है । संसारी और मुक्तकी अपेक्षासे जीवके दो भेद हैं। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यकी अपेक्षासे तीन भेद हैं, चार गतियोंकी अपेक्षासे चार भेद हैं, इत्यादि वर्णन जीवका है । वैसेही पुद्गलकाभी
१ आ. तु.
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२ आ. सहस्त्रश्च
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