Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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- १.७८ )
सिद्धान्तसारः
( १३
कषायाकुलितो जीवः कार्यमार्य विनिन्दितम् । कृत्वानुतायते ' चान्ते सा निन्दा निन्द्यनाशिनी ॥ ७२ जातेऽत्र दुष्कृते घोरे रागद्वेषादिदोषतः । आलोचना मता गर्हा गुरूणामग्रतो बुधैः ॥ ७३ कालुष्यकारणे जाते दुर्निवारे गरयसि । नान्तः क्षुभ्यति कस्मिश्चिच्छान्तात्मासौ निगद्यते ॥ ७४ देवे संघे ते साधौ कल्याणादिमहोत्सवः । निर्व्याजाराधना ज्ञेया भक्तिर्भव्यार्थसाधिका ॥ ७५ चतुविधस्य संघस्य वैयावृत्त्यमर्गार्हतम् । अन्नौषधादिभिदिव्यं वात्सल्यमभिधीयते ॥ ७६ कर्मपाकभवानेकदुःखानुभवभाविषु । जीवेष्वार्द्रतमो भावोऽनुकम्पा कथिता जिनैः ॥ ७७ गुणाञ्जनप्रयोगेण सदृष्टिनिर्मलीकृता । यथाभिलषितं देशं प्राणिनं प्रापयत्यसौ ॥ ७८
ताप होता है उसे निन्दा कहते हैं । यह निन्दा नामक सम्यक्त्वगुण निन्द्य- पापका नाश करनेवाला है ।। ७२ ।।
( गर्हाका लक्षण ) रागद्वेषादिदोषोंके अधीन होकर जब पाप उत्पन्न होता है तब गुरुके आगे उसकी आलोचना करना यह सम्यक्त्वका 'ग' नामक गुण है, ऐसा बुद्धिमान लोग मानते हैं । अपने दोषोंका स्वयं अनुताप करना निन्दा है तथा गुरुके आगे अपने दोषोंका पश्चातापूर्वक वर्णन करना गर्दा है ।। ७३ ।।
( प्रशमका लक्षण ) कोई दुर्निवार तथा बडा कलुषताका कारण उत्पन्न होनेपर जिसका मन क्षुब्ध होता नहीं, वह भव्यजीव शान्तात्मा अर्थात् प्रशमगुणका धारक है ऐसा विद्वान् कहते हैं ।। ७४ ।।
( भक्तिगुण ) दोषरहित जिनदेव, मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविकारूप चार प्रकारका संघ, रत्नत्रयाराधक मुनि, तथा गर्भजन्मादि पांच कल्याणोंका महोत्सव इत्यादि प्रसंगों में सम्यग्दृष्टि अन्तःकरणपूर्वक इच्छा और कपटरहित जो आराधना करता है वह उसका भक्तिनामक गुण कहा जाता है । यह गुण भव्य अर्थकी अर्थात् पुण्यफलरूप संपत्तिकी प्राप्ति करनेवाला है । परिणामोंकी निर्मलतासे जो देवादिकोंपर अनुराग किया जाता है उसे भक्ति कहते हैं ।। ७५ ॥
( वात्सल्यगुण ) अन्न, औषध आदिके द्वारा चार प्रकारके संघकी जो प्रशंसनीय सेवाशुश्रूषा मनवचनकायसे की जाती है उसको वात्सल्यगुण कहते हैं ॥ ७६ ॥
( अनुकम्पागुण ) असातावेदनीय और अंतरायादि अशुभ कर्मोंके उदयसे प्रगट हुए दारिद्र्य, रोग, चिन्ता वगैरेह दुःखोंसे पीडित हुए जीवोंपर दयार्द्र भाव उत्पन्न होना उसे जिनेश्वर अनुकम्पाभाव कहते हैं । परपीडाको देखकर मानो वह पीडा अपनेकोही हो रही है ऐसा समझ उसे दूर करना अनुकंपागुण है ।। ७७ ।।
इन आठ गुरूपी अंजनप्रयोगले सम्यग्दर्शनरूपी नेत्र जब निर्मल होता है तब वह जीवको अभिलाषितस्थान के प्रति ले जाता है ॥ ७८ ॥
१ आ. तपते.
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