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कोई अद्भुत बात जान कर अचरज होना ) दोष नहीं रहता है। दर्शनावरण कर्मका नाश होकर अनन्तदर्शन उत्पन्न होनेके कारण नींद ( निद्रा ) दोष नहीं रहता है । मोहनीय कर्मके नष्ट हो जानेसे अर्हन्त के मोहकी सब दशाएं नष्ट होजाती हैं तथा अनंत सुख प्रगट होता है जिससे कि रंचमात्र दुःख नहीं रहने पाता है । इस निमित्तसे जन्म, भूख, प्यास, पीडा, रोग, शोक, अभिमान, मोह, भय, चिन्ता, राग, द्वेष, मरण ये १५ दोष अर्हन्तके नहीं होते हैं और अन्तराय नष्ट होकर अर्हन्तके जो अनन्तबल प्रगट होता है उसके कारण खेद स्वेद, बुढापा ये दोष नहीं रह पाते हैं।
परन्तु-श्वेताम्बर, स्थानकवासी संप्रदायके बतलाये हुए १८ दोषोंके भीतर प्रथम तो मद, मान ये दोनों तथा रति, प्रेम ये दोनों एक ही हैं। मद तथा मानका एक ही “ अभिमान करना" अर्थ है । रति ( राग ) और प्रेम इनमें भी कुछ अन्तर नहीं। इस कारण दोष वास्तवमें १६ ही ठीक बैठते हैं । तथा सत्य वचन, चोरी और हिंसा ये तीन दोष ऐसे हैं जो कि अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थानमें भी नहीं रहते हैं । वैसे तो मुनि दीक्षा ले लेनेपर ही हिंसा, झूठ बोलना, चोरी करना इन तीनों पापोंको पूर्ण रूपसे मुनि त्याग कर देते हैं किंतु प्रमाद विद्यमान रहने के कारण कदाचित् अहिंसा, सत्य, अचौर्य महाव्रतमें कुछ दोष भी लगता हो तो वह प्रमाद न रहनेसे सातवें गुणस्थानमें बिलकुल नहीं रह पाता है । इस कारण जब कि सातवें गुणस्थानवर्ती मुनिके ही मन, वचन, कायकी अशुभ प्रवृत्तिका त्याग हो जानेसे हिंसा, असत्य वचन और चोरी नहीं रहने पाती है तो इन तीनों बातोंका अभाव अहंत भगवान् में बतलाना व्यर्थ है । अर्हत भगवानके तो उन दोषोंका अभाव बतलाना चाहिए जो कि उनसे ठीक नीचेके गुणस्थानवाले मुनियों के विद्यमान, मौजूद हों । जो बात सातवें गुणस्थानवाले छद्मथ (अल्पज्ञ) मुनियोंके भी नहीं हैं उस बातका अभाव केवली भावानके कहना निरर्थक है।
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