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( ३ )
- जैन समाज इस समय तीन संपदायों में विभक्त ( स्टा हुआ) है। दिगम्बर, श्वेताम्बर और+स्थानव.वासी । इनमें से श्वेताम्बर तथा स्थानकवासी सम्प्रदायके भीतर सिद्धान्तकी दृष्टिसे कुछ विशेष भेद नहीं है। स्थूल भेद केवल यह है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय मूर्तिपूजक है अतएव जिनमंदिर, जिनप्रतिमा तथा तीर्थक्षेत्रोंको मानता है, पूजता है । किन्तु स्थानकवासी समाज जो कि लगभग ३० वर्ष पहले श्वेताम्बर सम्प्रदाय से प्रगट हुआ है जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, और तीर्थक्षेत्रको न तो मानता है और न पूजता ही है, वह केवल गुरु और शास्त्रको मानता है ।
किन्तु दिगम्बर सम्प्रदायके साथ श्वेताम्बर तथा स्थानकवासी सम्प्रदायोंका सिद्धान्तकी दृष्टि से बहुत भारी मतभेद है। इसलिये उसकी परीक्षा करना जरूरी है ।
सच्चे देवका स्वरूप. धर्मकी सत्यता, असत्यताकी खोज करने के लिये तीन बातें जाच लेनी आवश्यक हैं; देव, शास्त्र और गुरू । जिस धर्मका प्रवर्तक देव, उस देवका कहा हुआ शास्त्र तथा उस धर्मका प्रचार करनेवाला, गृहस्थ पुरुषों द्वारा पूजनीय गुरु सत्य साबित हो वह धर्म सत्य है और जिस के ये तीनों पदार्थ असत्य साबित हों वह धर्म झूठा है। इस कारण यहांपर इन तीनों जैन सम्प्रदायोंके माने हुए देव, शास्त्र, गुरु की परीक्षा करते हैं । उनमें से प्रथम ही इस प्रथम परिच्छेदमें देवका स्वरूप परी. क्षार्थ प्रगट करते हैं।
दिगम्बर, श्वेतांबर, स्थानकवासी ये तीनों संप्रदाय अर्हत और सिद्धको अपना उपास्य ( उपासना करने योग्य ) देव मानते हैं । तथा " आठ कर्माको नष्ट करके शुद्ध दशाको पाए हुए जो परमात्मा लोकशिखरपर विराजमान हैं वे सिद्ध भगवान हैं और जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण मोहनीय और अंतराय इन चार घाती कर्मोका नाश करके अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवल यह अनंतचतुष्टय पा लिया है ऐसे जीवन्मुक्तिदशाप्राप्त परमात्माको अईन्त कहते हैं ". यहांतक भी तीनों सम्प्रदाय निर्विवाद रूपसे स्वीकार करते हैं । , . . .
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