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सन्मार्ग तो आदेय अरु है हेय जो उत्पथ सदा, कर्तव्य सज्जनका यही जो, गहै शुभ मग सर्वदा ॥ ५ ॥
प्रथम परिच्छेद.
पीठिका. समस्त संसारके वंदनीय, समस्त जगतके कल्याणविधाता, अनंतशक्तिसम्मन्न, विश्वदर्शक बोध विभूषित, अनुपमसुखमंडित, अनन्तगुणगण कलित, जिनेन्द्र, अर्हन्त, भगवान्, परमेश्वर आदि अनेक नामोंसे सम्बोधित परमपवित्र आत्मवारक देवका अन्तःकरणसे स्मरण, वन्दना करके मैं ग्रंथ प्रारम्भ करता हूं।
इस बिकट संसार अटवीके भीतर जन्म, जरा. मरण आदि व्याधों के द्वारा रातदिन सताये गये सांसारिक जीवोंका उद्धार करनेके लिये यद्यपि शरणदायक अनेक धर्म विद्यमान हैं, किन्तु वे सभी एक दूसरे से विरुद्ध मार्ग बतलाते हैं इस कारण उनमें से सच्चा कल्याण दायक धर्म कोई एक ही हो सकता है, सभी नहीं । धर्मोकी सत्यताकी परीक्षा करलेनेपर मालूम होता है कि प्रत्येक जीवको सच्ची शांति, एवं सच्चा सुख देनेवाला यदि कोई धर्म है तो वह जैनधर्म है इस कारण वह ही सच्चा धर्म है। ' अहिंसा भाव जो कि समस्त संसारका माननीय प्रधान धर्म है, इसी जैनधर्मके भीतर पूर्ण तौरसे विकसित रूपमें पाया जाता है। ____ कालकी कराल कुटिल प्रगतिसे इस जैनधर्मके भी अनेक खंड हो गये हैं और वे भी परस्पर दूसरेके विरुद्ध मोक्षसाधनकी प्रक्रिया बतलाते हैं । इस कारण जैनधर्मके भीतर भी सत्य, असत्य मार्ग खोज करनेकी आवश्यकता सामने आ खडी हुई है। विना परीक्षा किये ही यदि कोई मनुष्य जैनधर्मका धारक बनजावे तो संभव है कि वह भी सत्य मार्ग से बहुत दूर रह जावे । . ___ इस कारण इस ग्रंथमें जैनधर्मपरिगलक संरदायोंकी सत्यता, असत्यताका दिग्दर्शन कराया जायगा ।
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