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समझते हैं जो कि स्थानीय दि. जैन मंदिरजीके शास्त्र भंडारमें प्रख्यात श्वेताम्बरीय ग्रंथोंको रख गये हैं और उनपर अनेक दृष्टव्य विषयोंको चिन्हित कर गये हैं।
इन सबके सिवाय हम स्थानीय जैन सिद्धान्त के मार्मिक ज्ञाता श्रीमान ला० चौथरामजी सिंधीका नाम भी नहीं भुला सकते जिनकी सतत तीव्र प्रेरणासे यह ग्रंथ प्रारम्म किया गया था । आप इस समय दिगम्बर जैन ओसवाल समाजके गणनीय नररत्न हैं । आपने दिगम्बर जैन ओसवाल समाजके प्रधान वृद्धिकर्ता स्वर्गीय पं० धनश्यामदासजी सिंघीके अनुरोधसे दिगम्बर जैनधर्मकी परीक्षा की तदनन्तर श्वेताम्बर जैनधर्मको छोडकर दिगम्बर जैनधर्म धारण किया है ।
यह ग्रंथ सत्य असत्य निर्णयके लिये लिखा गया है इस कारण प्रत्येक सज्जन चाहे वह दिगंबर हो या श्वेतांबर, इस ग्रंथका एक नार अवश्य अवलोकन करें, परनिंदा को हम दुर्गतिका कारण समझते हैं और असत्य निंदाको अनन्त संसारका कारण घृणित कार्य मानते है किंतु सत्य असत्यका निर्णय सम्यग्ज्ञान एवं सुगतिका कारण मानते हैं इसी लक्ष्यसे इस ग्रंथको लिखा है । यदि कोई पदाशय विद्वान किसी स्थलपर हमारी कोई त्रुटि बतला देंगे तो हम उनके कृतज्ञ होंगे।
उस अनंत सुखराशिमें विराजमान, विश्वप्रकाशक अचल ज्ञान ज्योतिसे विभूषित, अपारशक्तिसम्पन्न श्री १००८ जिनेंद्र भगवान के भक्तिप्रसादसे एवं उनके स्मरण और ध्यानसे प्रारब्ध ग्रंथ समाप्त हुआ है। ___ ग्रंथका प्रारंभ चैत्र शुक्ला पंचमी वीर सं० २४५३ के दिन श्री दि. जैन मंदिर डेरा गाजीखानमें हुआ था और समाप्ति स्थानीय ( मुलतानके ) दि० जैन मंदिरमें आज मगसिर शुक्ला ५ मंगलवार वीर सं. २४५४ के प्रातः समय हुई है।
अजितकुमार शास्त्री चावली-(आगरा), वर्तमान - मुल्तान नगर
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