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भव - वन में होती रहती है । जीव कषायवर्षा में भीगते रहते हैं । वे क्रोधी बनते हैं, अभिमानी बनते हैं, माया करते रहते हैं और लोभी बने रहते हैं । जो जीव मिथ्यात्व की वर्षा में नहीं भीगते हैं, उन पर कषायों की वर्षा का प्रभाव कुछ कम होता है ! अविरति की वर्षा में जो ज्यादा नहीं भीगते हैं, उन पर भी कषायों का असर कुछ कम होता है । कषायों की वर्षा से संपूर्णतया बचना, भव-वन में अशक्य सा है । थोड़ा बहुत भीगना ही पड़ता है ! भव-वन में भटकते जीवों की यह परवशता है ।
* चौथी वर्षा होती है मन-वचन-काया के शुभाशुभ योगों की । अशुभ योगों की वर्षा से जीवों के मन बिगड़ते हैं । बुरे विचार आते रहते हैं । अशुभ ध्यान होता रहता है । मन की विकृति के साथ-साथ वाणी भी विकृत बनती है । अप्रिय, असत्य और अहितकारी बनती है वाणी । जीवात्मा अप्रिय, असत्य और अहितकारी ही बोलता रहता है । अशुभ योगों की वर्षा से जीवात्मा अपने शरीर से भी दुष्ट प्रवृत्ति करता है । इन्द्रियों का दुरुपयोग करता है । यह तो हुई अशुभ योगों की वर्षा के प्रभावों की बात । शुभ योगों की वर्षा से इससे विपरीत प्रभाव पड़ते हैं । मन में अच्छे विचार आते हैं; वाणी प्रिय, सत्य और हितकारी होती है । शरीर से प्रवृत्तियाँ भी प्रशस्त होती हैं । कभी शुभ योगों की वर्षा में भीगते हैं, कभी अशुभ योगों की वर्षा में भीगते हैं ! योगों की वर्षा निरंतर होती रहती है ।
* पाँचवी वर्षा होती है प्रमादों की । प्रमादों की वर्षा में जो जीव भीगते हैं उन में अनेक प्रकार की विकृतियाँ पैदा होती हैं। मुख्य रूप से पाँच विकृति होती है । पहली विकृति है निद्रा की । उन जीवों को निद्रा ज्यादा आती है । ज्यादा सोना उनको पसंद भी होता है । दूसरी विकृति होती है विषयलालसा की । पाँच इन्द्रियों के प्रिय विषयों का ज्यादा उपभोग करते रहते हैं । तीसरी विकृति होती है कषायों की । कषाय करते रहते हैं। चौथी विकृति होती है विकथाएँ करने की । विकृत कथा को विकथा कहते हैं। शृंगार- प्रधान बातें करते हैं, भोजनविषयक चर्चा करते रहते हैं, देश-संबंधी फालतू बातें करते रहते हैं और देशनेताओं के विषय में निष्प्रयोजन आलाप - प्रलाप करते रहते हैं। प्रमाद-वर्षा में भीगनेवालों की यह स्थिति होती है । पाँचवी विकृति होती है आलस्य की । कोई भी कार्य समय पर नहीं करेगा । उसका बस चले तो कार्य करेगा ही नहीं । सुस्त पड़ा रहेगा । अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा ।
प्रस्तावना
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