Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ समकित-प्रवेश, भाग-1 प्रवेश : इसका मतलब यह हुआ कि अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु व वीतरागी जैन धर्म मंगल है ? समकित : हाँ, यह सभी मंगल हैं और इनमें भक्ति-भाव' होने से, हमें इनके बताये हुए रास्ते पर चलने की प्रेरणा मिलती है और हमारा भी मंगल होता है। प्रवेश : चत्तारि दण्डक में तो मंगल के साथ उत्तम व शरण की भी बात आती है, वह क्या है ? समकित : इसकी चर्चा हम अगली कक्षा में करेंगे। निरखो अंग-अंग जिनवर के, जिनसे झलके शांति अपार ।।टेक।। चरण-कमल जिनवर कहें, घूमा सब संसार / पर क्षणभंगुर जगत में, निज आत्मतत्व ही सार / यातें पद्मासन विराजे जिनवर, झलके शांति अपार / / 1 / / हस्त-युगल जिनवर कहें, पर का कर्ता होय / ऐसी मिथ्या बुद्धि से ही, भ्रमण-चतुर्गति होय / यातें कर पे कर विराजे जिनवर, झलके शांति अपार / / 2 / / लोचन-द्वय जिनवर कहें, देखा सब संसार / पर दुःखमय गति-चार में, ध्रव आत्मतत्व ही सार / यातें नासादृष्टि विराजे जिनवर, झलके शांति अपार / / 3 / / अन्तर्मुख मुद्रा अहो, आत्मतत्व दरसाय / जिन-दर्शन कर निज-दर्शन पा सत्-गुरु वचन सुहाय / यातें अन्तर्दृष्टि विराजे जिनवर झलके शांति अपार / / 4 / / 1.gratitude 2.inspiration