Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation

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Page 16
________________ समकित-प्रवेश, भाग-1 समकित : ऐसो पंचणमोयारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं पढ़मं होहि मंगलम् / / अर्थ- यह णमोकार मंत्र सब पापों को नष्ट (खत्म) करने वाला है, सभी मंगलो में पहला मंगल है व इसको पढ़ने से मंगल होता है। प्रवेश : अरे वाह ! यह तो बहुत अच्छा रहा, कितने भी पाप करो, णमोकार मंत्र पढ़ने से तो सब पाप नष्ट (खत्म) हो ही जायेंगे। समकित : ऐसा सोचने वालों के एक भी पाप नष्ट (खत्म) नहीं होते, क्योंकि णमोकार मंत्र पढ़ते समय भी उनको ऐसे अनाप-शनाप विचार' आते रहते हैं। प्रवेश : भाईश्री ! यह मंगल क्या होता है ? समकित : आज नहीं कल। परमात्मा में परम स्नेह चाहे जिस विकट मार्ग से होता हो तो भी करना योग्य ही है। -श्रीमद् राजचन्द्र वचनामृत अहो ! देव-शास्त्र-गुरु मंगल हैं, उपकारी हैं। हमें तो देव-शास्त्र-गुरु का दासत्व चाहिए। जिनेन्द्र मन्दिर, जिनेन्द्र प्रतिमा मंगलस्वरूप हैं: तो फिर समवसरण में विराजमान साक्षात् जिनेन्द्रभगवान की महिमा और उनके मंगलपने का क्या कहना ! सुरेन्द्र भी भगवान के गुणों की महिमा का वर्णन नहीं कर सकते, तब दूसरे तो क्या कर सकेंगे? -बहिनश्री के वचनामृत 1.useless thoughts

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