Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ समकित-प्रवेश, भाग-1 साधु परमेष्ठी- आचार्य व उपाध्याय के अलावा सभी मुनि साधु कहलाते हैं। आचार्य व उपाध्याय की तरह यह भी स्वयं की साधना में लीन रहते हैं। साथ ही महाव्रत आदि मूल गुणों को निर्दोष-रूपसे पालते हैं, समस्त आरंभ-परिग्रह से रहित हैं, तपस्वी हैं व दुनिया के प्रपंचों से हमेंशा दूर रहते हैं। उन्हें साधु परमेष्ठी कहते हैं। साधु के पास आचार्य व उपाध्याय की तरह संघ का संचालन करने व पढ़ाने की जिम्मेदारी नहीं होती। यही इनके बीच का मुख्य अंतर है। प्रवेश : भाईश्री ! आचार्य, उपाध्याय और साधु का सामान्य स्वरूप और समझा दीजिये। समकित : जो स्वयं को जानकर, मानकर व स्वयं में आंशिकरूप-से लीन होने से आंशिक वीतरागी व आंशिक सुखी हैं व पूर्ण वीतरागता और पूर्ण-सुख की ओर लगातार अपने कदम बढ़ा रहे हैं, वे साधु (आचार्य, उपाध्याय व साधु) हैं, वही सच्चे गुरु हैं। प्रवेश : भाईश्री ! पंच परमेष्ठियों के पास तो बहुत अच्छे-अच्छे गुण हैं। अब समझ में आया कि णमोकार मंत्र में पंचपरमेष्ठी को क्यों नमस्कार किया गया है। समकित : पंचपरमेष्ठी का स्वरूप समझकर अब जब तुम णमोकार मंत्र में उनको नमस्कार करोगे तो सच्चा नमस्कार होगा। प्रवेश : भाईश्री ! बाकी सब तो समझ में आ गया लेकिन एक बात समझ में नहीं आयी कि पंच परमेष्ठी को नमस्कार करने से लाभ क्या है ? समकित : वह तुमको अगली कक्षा में बताऊँगा। थोड़ा धीरज" रखो। जल्दी का काम शैतान का होता है। नी संत के बिना अंत की बात का अंत नहीं पाया जाता। -आत्मसिद्धि 1.flawlessly 2.household tasks & possessions 3.ascetic 4.delusions 5.management 6.difference 7.partially 8.complete detachment 9.complete bliss 10.benefit 11.patience