Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ आचार्य-उपाध्याय-साधु (सच्चे गुरु) समकित : पिछली कक्षा में हमने सच्चे देव यानि कि अरिहंत व सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप समझा था। अब हम सच्चे गुरु यानि कि आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्ठी का स्वरूप समझेंगे। प्रवेश : भाईश्री ! आचार्य, उपाध्याय, साधु ही सच्चे-गरु' हैं, फिर आप? समकित : जिस तरह तुम्हारे स्कूल के टीचर, लौकिक-शिक्षा-गुरु हैं। माता-पिता, जन्म-गरु हैं उसी तरह मैं धार्मिक-शिक्षा-गुरु हूँ। लेकिन आचार्य, उपाध्याय व साधु तो धर्म-गुरु यानि कि सच्चे गुरु हैं, परम पूज्य हैं। प्रवेश : भाईश्री ! तो क्या शिक्षा-गुरु, जन्म-गुरु पूज्य नहीं हैं ? समकित : वे लौकिक-दृष्टि से तो पूज्य हैं, लेकिन धार्मिक दृष्टि से नहीं। प्रवेश : भाईश्री ! तो फिर आचार्य, उपाध्याय व साधु का स्वरूप समझाईए न। समकित : आचार्य परमेष्ठी- जो स्वयं की साधना की अधिकता से प्रमुख पद प्राप्त करके मुनि-संघ के नायक हुए हैं और जो मुख्यरूप-से तो स्वयं की साधना में ही लीन रहते हैं, लेकिन कभी-कभी करुणाबुद्धि से पात्र' जीवों को धर्म का उपदेश देते हैं, दीक्षा देते हैं व अपने दोष बताने वालों को प्रयाश्चित देते हैं। ऐसा आचरण करने व कराने वाले आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं। इनके पंचाचार आदि 36 गुण होते हैं। उपाध्याय परमेष्ठी- जो समस्त उपलब्ध" जैन आगम" के ज्ञाता होकर मुनि संघ में पढ़ने-पढ़ाने के अधिकारी हुए हैं। जो सभी आगम का सार यानि कि स्वयं-की-साधना में लीन रहते हैं, लेकिन कभी-कभी करुणा बुद्धि से आगम को स्वयं पढ़ते हैं व दूसरों को पढ़ाते हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं। इनके 25 गुण होते हैं। 1.true teachers 2.religious educator 3.venerable 4.worldly-perspective 5.supremeness 6. head 7.mainly 8.compassion 9.deserving 10.conduct 11.available 12.scriptures 13.essence 14.self-experience

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 308