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ज्ञानी० ॥ १ ॥ (मिलत ) भवितव्यताका जोर जिसीसे देववचन विसराया है । रह्या काम अधूरा, फिर भी लक्ष्मी किनारा पाया है । देव कृपाकर भूगर्भसे बिम्ब चार प्रगटाया है। सुकुसुमकी वरसा, देखके संघ सकल हरषाया है । एक बिंब तो गुप्त हुवा. तीनोंको मन्दिरमें लाये हैं । सोजत कापरडे, अरु पीपाड़ नगरमें ठाये हैं । (छूट ) संवत् सोलह इठान्तरे, वैशाख पूर्ण मासजी । मरुधर धीश 'गजसिंह' का जोधाणा में वासजी । जिसके विजयराज में, प्रतिष्ठा हुई सुखकारजी । संघ चतुर्विध महोत्सव कीनो, चरत्या जय जयकारजी । (शेर) चौमुख प्रतिमा चार चतुर गति चूरे । भलो० । मूल नायक श्री पार्श्वनाथ सुखपुरे। संघमें हुवा आनंद मंगल गुणगावे । भलो । मिल नर नारी का वृन्द पार्श्व मन ध्यावे ॥ ( दौड़ ) बढ़ा पाप का प्रचार । छोड़ि सेव भक्ति सार । जिससे पुन्य गये परवार । हुवा संघ बैकार २। छोड़ी मन्दिर की छाप । लगा अधिष्टायक का शाप । अन्न नहीं मिलता है धाप । देखो आशातना का पाप २ । (मिलत) आशातना का पाप जबर है परभव में दुःख पावेगा । ज्ञानी० ॥ २॥ (मिलत) प्रबन्ध नहीं सेवा पूजा का, तूट फूट होने लागी । जो सेठ लल्लुभाई के हृदय में भक्ति जागी । फिर विजय नेमिसूरीश्वर आये मारवाड़ में बड़ भागी । घाणेराव पीपाड़ जोधाणे, बीलाड़े भक्ति जागी । अहमदाबाद, पालडी, पाली, संघ एकठा हो सागी । जीर्णोद्धार कराया जिनका गुण गावे शासन रागी ॥ (छूट) उगासे पीचंतरे वसंत पंचमी बुधवारजी । हुई प्रतिष्टा आनंद में