Book Title: Samar Sinh
Author(s): Gyansundar
Publisher: Jain Aetihasik Gyanbhandar

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Page 274
________________ समरा रास । २३७ समरऊ ए साहसधीरु वाहविलग्गउ बहू अ जण । बोलई ए असमवीरू दूसमु जीपइ राउतवट ए ॥ १॥ अभिग्रहू ए लियइ अविलंबु जीवियजुबण बाहबलि । उधरऊ ए आदिजिणबिंबु नेमु न मेन्हउ आपणउ ए । भेटिऊ ए तउ पानषानु सिरु धूणइ गुणि रंजियउ ए ॥२॥ वीनती ए लागु लउ वानु पूछए पहुता केण कजे । सामिय ए निसुणि अडदासि प्रासालंबणु अम्हतणउ ए । मइली ए दुनिय निरास ह ज भागी य हीदअतणी ए। सामिय ए सोमनयणेहिं देषिउ समरा देइ मानु ॥३॥ प्रापिऊ ए सव्ववयणेहि फरमाणु तीरथमाडिवा ए। अहिदर ए मलिकाएसि दीन्ह ले श्रीमुखि आपण ए। षतमत ए पानपएसि किउ रलियाइतु घरि संपत्तो । पणमई ए जिणहरि राउ समणसंघो तहि वीनविउ ए ॥४॥ संघिहि ए कियउ पसाउ बुद्धि विमासिय बहूयपरे । सासण ए वर सिणगारु वस्तपालो तेजपालो मंत्रे । दरिसण ए छह दातारु जिणधर्मनयण बे निम्मला ए। आइसी ए रायसुरताण तिणि आणीय फलही य पवर ।। ५ ॥ दूसम ए तणी य पुणु आण अवसरो कोइ नहीं तसुतणउ ए । इह जुग ए नहीं य वीसासु मनुमात्रे इय किम छरए । तउ तुहु ए पुनप्रकासु करि ऊधरि जिणवरधरमु ॥ ६ ॥

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