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उमरसिंह भाकाश गुंज रहा था । हर्ष का वारापार न था। पहले सब आचार्य व संघ मिल श्रीपंचासरा पार्श्वनाथ की यात्रा कर बाद आचार्य श्री कक्कसूरिंजी के उपाश्रय पहुँचे पुनः वन्दनादि करके सब अपने अपने स्थानों की ओर चले।
ऐसे महान् प्रभाविक प्राचार्य श्री ककसूरि शासन की अति उन्नति कर अन्तमें अपने पट्टपर एक भाचार्य को नियुक्त कर उनका नाम देवगुप्तसूरि रख स्वर्ग सिधारे। सूरिजी के स्वर्गवास के समाचार को सुनकर संघ के चित्त अति शोक उत्पन्न हुधा पर बात विवश थी । सब प्राचार्योंने उपकेशगच्छ के उपाभय में उपास्थित हो सूरीश्वर के स्वर्गवास पर बहुत शोक प्रकट किया । आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि के हृदयपर इस का विशेष
आघात पहुँचा । उनके ललाट पर एक विषाद की रेखा खिंच गई । हेमचन्द्राचार्य के मुखसे सहसा यह उद्गार निकले ।
गयउ सुकेसरी पीयहुऊ जलु निचित, हरी लाइ जासु तणइ हुकरडइ महुह पडती भीणई । १ ।
अर्थात् “ हे शृगालो ! अब सुखपूर्वक तृणचरो, जिसके हुकार मात्रके श्रवण से मुख से तृण छूट पड़ते थे यह केसरी आज दुनिया से चला गया है । वादी व शिथिलाचाचारी रूप शृगालों के मुख से वाणारुप घास जो मुखसे खिसक जाता था उस हूँकार को करनेवाला केसरी भाज जैन शासन से चला गया है । इस वाक्य से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिने अन्यान्य आचार्यों को यह