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उहार का फरमान ।
मलपखान मुसलमान राजा था परन्तु वह अपनी हिन्दू-प्रजा के साथ बहुत अच्छा व्यवहार करता था तथा राज्य के उच्च उब पद योग्य हिन्दुओं को भी निष्पक्ष हो कर दिया करता था ।
पाठकों को यह बात तो पहले ही वतलाई जा चुकी है कि श्रीमान् देशलशाह के जेष्ठ पुत्र सहजपाल दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचुरता से प्रचार कर रहे थे। जिन्होंने देवगिरि (दौलताबाद ) में चौबीस तीर्थकरों की चौबीस देवकुलिकाएँ और पार्श्वनाथस्वामी का मन्दिर बनवा के धर्म का बीज उस उर्वराभूमि ( क्षेत्र ) में वपन किया था। देशलशाह के दूसरे पुत्र सहणपाल खंभात नगर में रहते थे तथा वे धार्मिक कार्यों में प्रमुख भाग लेते थे। उस समय देशलशाह के तीसरे पुत्र वीरवर श्री समरसिंह जो हमारे चरितनायक हैं पाटणनगर में अपने पिताश्री की सेवा में रहते हुए अनेक सत्कार्यों में सदा लगे रहते थे । इनकी कीर्ति रूपी सुरभि चहुं दिशाओं में लहलहा रही थी। श्रेष्ठिकुल तिलक देशलशाह पाटणनगर के प्रमुख व्यापारी थे। आप जवाहरात के व्यापार में विशेषज्ञ थे । सिद्धसूरिजी महाराज की आप पर पूर्ण दया थी । आपने व्यापार द्वारा इतना प्रचुर द्रव्य उपार्जन किया कि जिसकी गिनती करना भी अशक्य था । उधर हमारे चरितनायक स्वनाम-धन्य वीर साहसी समरसिंह अपने बुद्धिबल से अलपखान को अपनी ओर आकर्षित किये हुए थे। अलपखान सदैव समरसिंह से प्रसन्न चित्त होकर सलाह मसवरा आदि किया करते थे। समरसिंह राज्य के उत्तरदायी पद पर कार्य