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प्रतिष्ठा ।
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शुभ लग्न के समय पर एक हाथमें रजत कचौली तथा दूसरे हाथमें सुवर्ण सलाई लेकर आचार्य श्री सिद्धसूरिजी महाराज अंजनशलाका प्रतिष्टा करने को तैयार हुए। प्रतिष्टा सम्बन्धी वेला निकट भई । उस समय उस भव्यभवनमें 'समय' 'समय' ऐसी भावाज्र चारों दिशाओं से सुनाई दी । प्रतिष्ठा के समय सिद्धसूरि
१ वि. सं. १३७१ की यह प्रतिष्टा उपकेशगच्छ के आचार्य श्री सिद्धसूरि द्वारा हुई थी । यह उपर्युक्त दर्शित प्रामाणिक रास व प्रबंध के उल्लेख स्पष्ट है । इतने पर भी वि. सं. १४९४ में रचित गिरनार तीर्थ पर की विमलनाथ प्रासाद की प्रशस्ति ( बृहत्पोशालिक पट्टावली में सूचित श्लोक ७२ ) में, पं. विवेकधीर गरिण रचित वि. सं. १५८७ के शत्रुंजय तीर्थोद्धार प्रबंध ( आत्मानंद सभा भावनगर द्वारा प्रकाशित ) के उल्लास १, श्लोक ६३ में, वि. सं. १६३८ में नयसुन्दर गणि रचित शत्रुंजय रास में और इन्ही के आधार से लिखने वाले पाश्चात्य लेखकोंने यह बतलाया है कि इस प्रतिष्टा को कराने वाले आचार्य श्री रत्नाकरसूरि थे । यह उल्लेख उन्होंने बिना रास और प्रबंध को देखे किया है । उनके उल्लेख इस प्रकार हैं ।
“ आसन् वृद्धतपागणे सुगुरवो रत्नाकराह्वा पुरा
ऽयं रत्नाकर नामभृत् प्रववृते येभ्यो गणो निर्मलः । तैश्चकै समराख्य साधुरचितोद्धारे प्रतिष्ठा शशि
द्वीय व्येकमतिषु १३७१ विक्रमनृपादब्देष्वतीतेषु च ॥ ६३ ॥ प्रशस्त्यन्तरेऽपि—
वर्षे विक्रमतः कु - सप्तस- दहनैकस्मिन् १३७१ युगादि प्रभु श्री शत्रुंजय मूलनायकमतिप्रौढप्रतिष्ठोत्सवम् । साधुः श्री समराभिधास्त्रिभुवनीमान्यो वदान्यः क्षितौ
श्री रत्नाकरसूरिभिर्गणधरैयैः स्थापयामासिवान् ॥
( गिरनार - विमलनाथ प्रासाद की प्रशस्ति । )