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प्रतिश। विक्रम सं. १३७१ के तप (माघ ) मास की शुक्ल चतुर्दशी सोमवार को युगादीश्वर प्रभु की प्रतीष्टा की। पहले वजस्वामीने और पीछे से सिद्धसूरिजीने प्रतिष्ठा की, अतः दोनों की समता कहा जा सकती है। उस समय मुख्य मन्दिर के दंड की प्रतिष्टा तो प्राचार्य श्री सिद्धसूरि के आदेश से वाचनाचार्य नागेन्द्रने की थी।
संघपति देसलशाह अपने सर्व पुत्रों सहित चन्दन और घनसार आदि विलेपन से तथा पुष्प, नैवेद्य और फल आदि से प्रभु पूजा कर जिन हस्त को कंकणाभरण सहित देख कर बहुत प्रसन्न हुए । नृत्य और गीत क्रम से हुए । लोग कस्तूरी के विले. पन तथा पुष्पों से पूजन करते हुए जिन बिंब के निर्माण करने वाले तथा चैत्योद्धार कराने वाले भाग्यशाली भद्र भविक जनों की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे। देसलशाह महोत्सव पूर्वक दंड चढ़ाने को तत्पर हुए। सिद्धसूरि आचार्य के परामर्शानुसार देसलशाह अपने पुत्रों सहित दंड स्थापित करने के हित मंदिर पर चढ़े । आचार्य श्री सिद्धसूरिने मंदिर के कलश पर वासक्षेप डाला । सं. देसलशाहने सूत्रधारों द्वारा दंड स्थापित कराया। बजा प्रसन्नता से बांधी गई । श्रादर्श पिता अपने पाँचों होनहार कर्तव्यपरायण पुत्रों सहित सुशोभित था। पहले जावड़शाहने वायुपत्नी सहित नाच किया था उस को तो उस समय कोई नहीं जानता था पर मनोरथ की सिद्धि होने की खुशी में सं. देसलशाह सकल संघ तथा पांचों पुत्रों सहित प्रसन्नतापूर्वक नाचने