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समरसिंह
की हुई श्रीशांतिनाथ भगवान् की मूर्त्तियों अनुक्रम से खंभात खारवाडा स्तंभनपार्श्वजिनालय में और बड़ौदे की पीपलागली के चिंतामणि पार्श्वनाथ जिनालय में विद्यमान है ( देखो - बुद्धि सागरसूरि संग्रहित जैन प्रतिमा लेख संग्रह भा. २ रा - लेख नं.
-१०४४, १६६
उपकेशगच्छ के आचार्य कक्कसूरि द्वारा वि. सं. १३१ (९) ५ में प्रतिष्ठित सिद्धसूरि की मूर्त्ति पालापुर के जिनमन्दिर में विद्यमान है (देखो - साक्षर जिनविजयजी सम्पादित प्राचीन जैन लेख
शत्रुंजय पर तीर्थपद स्थान प्राप्त किया । आप का लक्ष्य अधिकतर यह था कि साधम्मियों की भरसक प्रयत्न से अधिकाधिक सेवा की जाय । साधम्मियों की सहायता तो आप खुले दिल से करते ही इसके अतिरिक्त जगत के इतर प्राणी भी आप से सहायता समय समय पर प्राप्त करते थे जिस के परिणामस्वरूप आप की सर्वत्र जगत में भूरि भूरि प्रशंसा श्रवणगोचर होती थी ।
इन सहोदरों में से सालिग और सज्जनने वि० सं० १४१४ में अपने मातापिता की युगल मूर्तियों की स्थापना सिद्धगिरिपर की जिस के ऊपर का शिलालेख पाठकों के समक्ष उपर रखा जा चुका है ।
डूंगरसिंह की स्त्री दुलहदेवीने वि० सं० १४३२ में आदिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्टा करवाई थी जिस का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है ।
वि० सं० १६८७ में डीसा में तपागच्छीय कविवर गुणविजयजी विरचित कोचर व्यवहारिया का रास में उल्लेख है कि समरसिंह के बाद उन के पुत्र सज्जनसिंहने खंभात में रह कर बादशाह से अच्छा सम्मान प्राप्त किया था । और कोच शाहने जिस प्रकार जीवदया के विषय में इनकी सहायता की थी वह भी स्पष्टतया उस रासमें प्रकट है ।