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प्रतिय के पचात् ।
संरक्षता में चलता हुमा तेजपालपुर के निकट पहुंचा। राजा महीपालदेव अपने नगर की ओर पधार गये ।
उज्जयंतगिरि शिखर के भूषण श्री नेमीजिन को नमस्कार करने के लिये संघपति देसलशाह सब संघ सहित गये और शत्रुजय तीर्थ की तरह यहाँ पर भी महाध्वजा, पूजा और दान आदि किये। प्रद्युम्न, शाँब, अवलोकन शिखर और तीन कल्याणक भादि सब मंदिरों की यात्रा कर देसलशाहने महापूजा कर महाध्वजा चढ़ाई ।
इसके पश्चात् देसलशाहने अम्बादेवी की पूजा की । उसी समय समरसिंह के पुत्र जन्मने की खबर वहाँ पहुँची । सुनकर सब अति प्रसन्न हुए । शुभ कृत्य का फल शीघ्र मिला । पुनः देसलशाहने चरितनायकजी के पुत्र होने की खुशी में अम्बामाता की प्रसन्नतापूर्वक पूजा की। गजेन्द्रकुण्ड में देसलशाह तथा सहजा मादिने स्नान किया । इस प्रकार परम आनंद और उल्लास से दस दिन तक इस तीर्थ पर रहकर गिरनार गिरि से नीचे उतरे ।
हमारे चरितनायक की प्रशंसा चारों ओर फैल गई । उस समय देवपत्तन के नरेश मुग्धराज की उत्कट अभिलाषा थी कि समरसिंह से मिलूँ । मुग्धराजने अपने मंत्री द्वारा हमार चरितनायक को इस भाशय का पत्र लिखकर भेजा-“वीर समरसिंह ! भाप पुनीत कलाधर (चन्द्र ) की तरह है । बड़ी कृपा हो यदि पाप मुझसे चातक के मनोरथ को, शीघ्र पूरित करें।" हमारे चरितनायक इस पत्र के अभिप्राय को तुरन्त समझ गये ।