Book Title: Samar Sinh
Author(s): Gyansundar
Publisher: Jain Aetihasik Gyanbhandar

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Page 254
________________ समरसिंह का शेष जीवन. २१७ बुला कर तिलंग देश में बसाया । उरंगलपुर में जैनियों की काफी बसती होजाने पर आपश्रीने जिनालय आदि बनवा कर जिन शासन के साम्राज्य को एक छत्र किया । प्रभुता पाकर भी आप को मद नहीं हुआ । इस के विपरीत अधिकारों का सदुपयोग करने में आपश्रीने किसी भी प्रकार की कसर नहीं रखी । आपश्री के शुभ और अनुकरणीय कृत्यों से पूर्वजों की महिमा भी चहुँ ओर फैली । जन्म लेने के पश्चात् श्रपश्रीने प्रतिदिन क्रमशः उन्नति करते हुए अन्त में जिनशासन में चक्रवर्ती सदृश होकर शासन को खूब दिपाया । ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जिस के हृदय पर विश्वप्रेमी समरसिंह का अधिकार नहीं हुआ हो । विश्वप्रेम आप के रोम रोम में विद्यमान था । आपश्रीने नीति पूर्वक रक्षण करते हुए तेलंग देश में रामराज्य स्थापित कर दिया । आप कर्ण की तरह दानी और मेघ की तरह सबों के जीवन रक्षक थे । आप की जितनी भी प्रशंसा की जाय थोड़ी ही है । इस भूमंडल पर कलिकाल को अपने बुद्धिबलद्वारा सतयुग कर स्वर्ग भी इसी हेतु से सिधारे कि वहाँ भी यही परिवर्तन कर दिया । शत्रुंजय तीर्थ के पहले यद्यपि कई उद्धार हो चुके हैं पर उद्धारक भरतेश्वर के सदृश सब राज - राजेश्वर ही थे परंतु इस विषम काल में आपश्रीने ऐसा अपूर्व कार्य कर दिखाया जिस से वास्तव में अचंभित होना पड़ता है । समरसिंह असाधारण और अलौकिक गुणों से विभूषित थे । ऐसे पुरुष की बरबरी दूसरा - कौन कर सकता है ?

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