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प्रतिष्टा ।
शाहने कस्तूरी का विलेपन किया । भाँति भाँतिके लाख पुष्पोसे साहणशाहने विचित्र पूजा की। हमारे चरितनायकने घनसार से भी श्रेष्ठतर कालागरु धूप प्रज्वलित किया। देसलशाहने सहजपान सहित मंडप में बैठकर अरिहंत प्रभुकी ओर दृष्टिकर तीर्थपति के गुणों में सावधान हो प्रेक्षणक्षण कराया।
दूसरे दिन प्रातःकाल देसलशाहने आचार्य श्री सिद्धमूरि को वंदना कर सुविहित सर्व साधुओं को सम्पूर्ण तृप्तिकारक भक्तपानसे पडिलाभकर पुत्रों सहित पारणा किया। चारण, गायक और भाटों आदि को सर्व श्रेष्ठ भोजन कराया गया। दीन, हीन, निर्बल, विकल, अटके, भटके, अनाथ और असाह्य याचकों के लिये दानशाला खुली रखी गई।
___ दस दिनों के महोत्सव होने के बाद ग्यारहवें दिवस प्रातः काल देसलशाहने संघ के साथ सिद्धसूरि प्राचार्यवरके हाथसे प्रभुके कंकणबंध का मोक्ष कराया । देसलशाहने विश्वप्रभुको अपने बनवाए हुए नये आभूषण-मुकुट, हार, अवेयक ( कंठा ), अंगद और कुंडल आदिसे पूजा की। दूसरे भव्य श्रावकों ने भी महा वजा बांध, मेरु पर मात्र करा महा पूजा कर अपनी शक्ति के अनुसार दान आदि दे अपने मानव जीवन को सफल किया ।
संघ के साथ देसलशाहने प्रादिजिनके सम्मुख रह हाथमें - आरती ले भारती उतारी। उस समय साहण और सांगण दोनों भाई जिनेश्वर भगवान् के दोनों भोर चामर लेकर उपस्थित थे।