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समरसिंह। सार देसलशाहने गाजों बाजों सहित श्री बादीश्वर भगवान् की प्रतिमा जो गृहमन्दिर में थी उसे मांगलिक क्रियापूर्वक नूतन देवालय में स्थापित की । कपर्दी यक्ष और सञ्चाईका देवीने हमारे चरितनायक के सहायार्थ मानो शरीर में प्रवेश किया। बाद रथ में वृषभ जोड़े गये । सौभाग्यवती स्त्रियोंने संघपति देसलशाह और समरसिंह के मस्तक पर अक्षत उछालने का मंगल कार्य किया । सारथीने देवालय को रवाने किया। चलते ही अभ्युदयका संकेतरूपी शुभ शकुन सब ओर से होने लगे। पहले संघ चला। भीड़ इतनी अधिक थी कि रास्ता संकीर्ण मालूम होने लगा। हमारे चरितनायकने घोड़े पर सवारी की। देसलशाह पालखी में बिराजे। चहुं ओर मधुर ध्वनि सुनाई देने लगी । संगीत और वाजिंत्र के सब साधन साथ ही में थे। देवालय की कदम कदम पर पूजा हो रही थी। पहले दिन देवालय संखारिया नामक ग्राम में पहुँचा और वहाँ विविध प्रकार से प्रभु-भक्ति होने लगी।
हमारे चरितनायकने पोषधशाला में जाकर सर्व प्राचार्यों को वंदना कर यात्रा करने के लिये पधारने की प्रार्थना की। इतना ही नहीं पर पाटण के श्रावकों के घर घर पर जा कर स्वयं समरसिंहने निमंत्रण दिया था अतएव प्रायः पाटण नगरी के सारे श्रावक संघ में चलने के लिये सम्मिलित हो लिये थे।
सर्व सिद्धान्त रूपी अगाध महासागर को पार करने के हेतु नौका रूप आचार्य श्री विनयचंद्रसूरि भी यात्रा में साथ थे। बृहद् गच्छ रूपी निर्मलाकाश में चंद्रमा की तरह मनोहर चारित्र
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