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प्रतिष्टा । पालने वाले आचार्य श्री रत्नाकरसूरि भी संघ के साथ थे। गौरवयुक्त अंतःकरण वाले श्री देवसूरि गच्छ के आचार्य श्री पद्मचंद्रसूरि, जिनदर्शन के उत्कट अभिलाषी धीर षं (सं) और गच्छ के आचार्य श्री सुमतिसूरि, भावड़ा गच्छ की विभूति को प्रदर्शन करनेवाले आचार्य श्री वीरसूरि भी प्रसन्नतापूर्वक यात्रा में चले थे। थारपद्र गच्छ के आचार्य श्री सर्वदेवसूरि और ब्रह्माण गच्छ के
आचार्य श्री जगत्चन्द्रसूरि भी संघमें चले थे। श्री निवृत्ति गच्छ के आचार्य श्री आम्रदेवसूरि जिन्होनें देसलशाह की यात्रा का रास बनाया है तथा नाणकगण रूपी आकाश को भूषित करने में सूर्य समान प्राचार्य श्री सिद्धसूरि भी साथ ही थे। बृहद् गच्छ के मनोहर व्याख्यानी आचार्य श्री धर्मघोषसूरि, 'राज्यगुरु' सदृश उपनाम के धारी श्री नागेन्द्र गच्छ के भूषण प्राचार्य श्रीप्रभानंदसूरि, श्री हेमचन्द्रसूरि के प्राचार्य पद के शुद्ध भावना वाले पवित्र श्री वम्रसेनसूरि आचार्य तथा इस के अतिरिक्त दूसरे गच्छों के गण्यमान्य अनेक धर्मधुरंधर आचार्य प्रभृति भी देसलशाह की यात्रा में साथ थे ।
चित्रकूट, वालाक, मरुधर और मालवा प्रदेश में विहार
१ देसलशाह की यात्रा का रास जिस का दूसरा नाम समरा रास भी है, श्री नितिगच्छ के भूषण श्री अम्ब ( आम्र ) देवसरिने विक्रम संवत् १३८३ के पहले लगभग विक्रम संवत् १३७१ के चैत्र कृष्णा ७ की यात्रा कर पाटण पहुंचने के बाद तुरन्त ही बना लिया होमा, ऐसा ज्ञात होता है। यह रास विक्रम की १४ वीं मतान्दी की प्राचीन और मनोहर गुजराती भाषा में होने के कारण गुजराती साहित्य में ब स्थान प्राप्त कर सकता है। परिशिष्ट में मूल रास (संशोधित) सम्पूर्ण देखिये।