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उद्धार का फरमान
'माव ' का है। भावना द्वारा किसी जीवधारी को सर्वोत्कृष्ट सुधार की प्राप्ती हो सकती है तथा इससे श्रेयस्करी प्रभावना होना सम्भव है। यही अनुपम भावना तीर्थयात्रा करते समय उत्पन्न होती है । सो यदि तीर्थपति का अभाव होगा तो हमें इस प्रकार गहरी हानि उठानी पड़ेगी । अतएव यदि संघ मुझे आज्ञा प्रदान करे तो मेरी प्रबल इच्छा है कि मैं तीर्थाधिपति की प्रतिमा बनवाऊं । साधन भी इस समय उपलब्ध हैं। मंत्रीश्वर वस्तुपाल जो मम्माण पाषाण की फलही लाए थे वह अभी तक अक्षतरूप में भोयरे में मौजूद है । वह फलही संघ के अधिकार में है इसी कारण मैंने आप लोगा को आज यहाँ एकत्रित किया है । यदि संघ की आज्ञा हो जाय तो बहुत ठीक अन्यथा मुझे कोई दूसरी फलही खोजनी पड़ेगी।"
श्री संघने हमारे चरितनायक तथा इनके पिता श्री देसल की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हुए कहा, “ मंत्री वस्तुपाल और तेजपाल तो जिनशासन के उज्ज्वल श्रावक-रत्न थे। वे दोनों षड्दर्शन के ज्ञाता और धर्म के दो निर्मल चक्षुओं की तरह थे। उन्होंने विपुलद्रव्य व्यय कर यह फलही प्राप्त की थी। अब दुषमकाल का समय है। किसी का भी विश्वास नहीं किया जा सकता । यह फलही तो श्रेष्ठ रत्नभूत है अतएव आप को दूसरी फलही, जो आरासण पाषाण की हो, प्राप्त करके तीर्थनायक की मूर्ति का निर्माण शीघ्र करवाना चाहिये ।"