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समरसिंह
थीं । बड़े बड़े विद्यालयों के भवन तथा ऊंचे ऊंचे शिखर एवं सोने क कलशों वाले देवस्थान नगर की शोभा की विशेष अभिवृद्धि करते थे । धर्म-साधन करने के इतने स्थान ( पोषधशाला ) थे कि प्रसिद्ध चौरासी गच्छ के अलग अलग उपाश्रय विद्यमान थे । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उस समय पाटण में जैनों का साम्राज्य था । क्योंकि जिस प्रकार जैनियों का व्यापार में हाथ था उसी भाँति राज्य के उच्च उच्च पदोंपर भी जैनी ही नियुक्त थे जो अपने उत्तरदायित्व का पूर्णरूप से पालन कर जन साधारण की भलाई को पहले स्थान देते थे ।
पाटणनगर के जैन लक्ष्मीपात्र थे । 'उपकेशे द्रव्य बाहुल्यं' का वरदान सोलह आना सिद्ध था । न्यायोपार्जित द्रव्य को जैनियोंने उदारता पूर्वक धार्मिक कार्यों में व्यय किया । बौद्धिक बल के साथ ही बाहुबल में भी जैनी आगे थे। इस बात का प्रमाण वे ऐतिहासिक बातें दे रही हैं जो चांपाशाह, विमलशाह, उदायन, वाग्भट, आम्रभट, शान्तुमहता, आभूमहता, मुजालमंत्री वस्तुपाल और तेजपाल के सम्बन्ध यत्रतत्र सुवर्णाक्षरों में अंकित हैं ।
वि. सं. १३५७ में गुजरात का राज्य करणवाघेला से छीन कर अलाउद्दीन खिलजीने ले लिया और उसने अपनी और से पाटण में अलपखान को सूवादार बना के भेज दिया था । यद्यपि
१ इनके राज्यकाल में जेसलशाहने शत्रुंजय का बड़ा भारी संघ निकाला । इस यात्रा में जेसलशाहने खंभात में पौशधशाला सहित अजितनाथस्वामी का मन्दिर ( प्रा० गु० काव्य का परिशिष्ट देखिये )
बनवाया था ।