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समरसिंह इस कारण से श्रावक समाज उन्हें अपना गुरु मानने लगी। दान आदि देते समय वे अपने मन्दिरों को ( दुगुना) दान देकर उन को अपनाने लगे। बाद में उन्हीं चैत्यवासियों से कइयोंने क्रिया का उद्धार कराया और जिस समूह में से किसीने अमुक कार्य किया वही एक पृथक नाम से पुकारा जाने लगा जिससे समूह का नाम पड़ गया। विक्रम की तेरहवीं सदी में यही समूह पृथक पृथक गच्छ के रूप में परिणत हुए । जैसे बड़ गच्छ, तपागच्छ, खरतर गच्छ, आंचलिया गच्छ, पूनमिया गच्छ, सार्ध पूनमिया गच्छ, चित्रावल गच्छ इत्यादि श्रावकवर्ग जो चैत्यवासी-समय में गोष्टिक नियुक्त किये हुए थे और वे जिस समूह के उपासक थे उसी गच्छ के उपासक कहलाने लगे।
__ कई लोग जो पोशाल बद्ध हो गये थे वे अपने गोष्टिकों की वंशावली आदि लिखने लग गये और उन वंशावलियों में उनके पूर्वजों को प्रतिबोध देने की घटनाएं मन घडंत लिपिबद्ध कर दी। यह कार्य बादमें उनकी आजीविका का आधार हो गया ।
महाजन संघ भारत के कोने कोने में प्रसारित हो गया | इनके फैल जाने के ही कारण उपदेशकों का भी विविध प्रान्तों में आना जाना बना रहने लगा । कई स्थान ऐसे भी रहे जहाँ पर गृहस्थों के गच्छ गुरु नहीं पहुंचे थे. अतः उन्हें अन्य गच्छ के गुरुओं के पास माना जाना होने लगा । ऐसी दशा में वे गृहस्थ जिनके गुरु थे उनके पास नहीं पहुँच पाते थे कोई ऐसा कार्य संघ निकालना, प्रतिष्टा या उजमना करना होता था तो तत्सम्बन्धी क्रिया