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उमरसिंह
विहार कर आप डारले नगर, जो सिन्ध प्रान्त में है, पधारे । उस शहर में यशोदित्य नामक एक स्वगच्छीय श्रावक था जो धनाढ्य और धर्म का पूर्ण मर्मज्ञ था । वह राज्य में माननीय था अतः वाचनाचार्य के नगरप्रवेश के जुलूस को सफल बनाने में उसने हरप्रकार की सहायता दी । पद्मप्रभ वाचनाचार्य के धार्मिक उपदेशों का प्रभाव वहाँ के नरेश पर इतना अधिक हुआ कि राजाने उन का असीम आभार मान कर ३२००० रूपये तथा बहुत से ऊंट और घोडे अर्पण करने लगा । जो श्रद्धालु भक्त जैन मुनियों के आचार से अनभिज्ञ होते हैं वे प्रायः ऐसा किया ही करते हैं । वाचनाचार्यने उत्तर दिया कि - राजन् ! यह पदार्थ हमारे प्रहण करने योग्य नहीं है, यदि तुम्हारी भक्ति करने की इच्छा है तो सब से उत्तम और सीधा उपाय यही है कि आप अहिंसाधर्म का खूब प्रचार करो । राजाने उत्तर दिया कि - यद्यपि आप का कथन उचित है तथापि जो द्रव्य में अर्पण करने की इच्छा कर चूका हूं वह मैं कदापि महल नहीं कर सकता । बहुत उत्तम हो यदि आप ही इस समस्या को हल करने का सरल उपाय बतादें । पद्मप्रभजीने उत्तर दिया है कि यदि चाप की ऐसी ही इच्छा है तो आप यह द्रव्य शुभ क्षेत्रों में व्यय कर डालिये । यशोदित्यने उस द्रव्य से एक रमणिक जैनमन्दिर बनवाया । इस प्रकार से और भी कई धर्माभ्युदय के कार्य आप द्वारा सम्पादित हुए ।