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उमरसिंह,
जम्बूनाग के चतुर्थ पट्टपर जिनभद्र हुए।
राज्य था
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ये विहार करते हुए अहलपुर पट्टण पधारे । उस समय वहाँ सिद्धराज जयसिंह का रामराजा की भावजने अपने पुत्र जिनभद्र ,, J लोतासा को जिनभद्र के सुपूर्द कर दिया । जिनभद्र को ज्ञात हुआ कि इस व्यक्ति के सामुद्रिक शुभ लक्षणों से ऐसा प्रतीत होता है कि भविष्य में यह लोतासा जिनशासन का महान् उपकारक होगा । अतएव उसे जैन दीक्षा दे कर पद्मप्रभ नाम रखा | ज्ञान ध्यान में पद्मप्रभ को खूब अभ्यास कराया गया । आप के अन्दर तीन गुण विशेष तौर से शोभित थे । प्रत्येक गुण उत्कृष्ट दर्जे का था । बे ये थे - संगीत, वक्तृत्व और अध्यात्म | आप की मधुर लय को सुन कर स्वर्ग की सुन्दरियें भी दाँतो तले ऊँगली दबाती थी । आप की वक्तृत्वकला का क्या कहना । जो व्यक्ति आप का ओजस्वी भाषण श्रवण करता उस के हृदय में वीररस का संचार हो जाता था | आध्यात्मिक ज्ञान तो आप में कूट कूट कर भरा हुआ था । इन गुणोंपर मुग्ध हो कर जिनभद्रोपाध्यायने आप को वाचनाचार्य की उच्च पदवी से विभूषित किया । इस से आप की प्रख्याति और भी विशेष फैली । एक बार आप विहार करते हुए पाटण पधारे | आप के वहाँ कई भाषण हुए | व्याख्यान का विशाल पाण्डाल श्रोताओं से इतना खचाखच भर जाता था कि वहाँ तिल धरने को भी ठौर नहीं मिलती थी ।
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जम्बूनाग महत्तर
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देवभद्र
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कनकप्रभ
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