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उमरसिंह
सूरीश्वरजी क्रमशः विहार करते हुए मरुभूमि के सपादलक्ष प्रान्त की ओर पधारे । मार्ग में म्लेच्छों के उत्पीडन से जनता की रक्षा करते हुए उन्हें जैनधर्मानुरागी और इस का अनुगामी बनाया । वहाँ के राजाने आप का यथेष्ठ आदर किया। वहाँ से आप एक संघ सहित अर्बुदराज पधारे । प्रीष्मऋतु होनेके कारण जल की कमी के कारण संघ पिपासा के घोर कष्ट को अनुभव करने लगा । सबने आप से संकट को मोचन करने के लिये प्रार्थना की । आपने निमित्त ज्ञान के ध्यान से एक बड़ वृक्ष की
ओर संकेत मात्र किया । दक्ष श्रावकोंने पानी निकाल कर पिपासा की बाधा को हरा । और संघ इस बात की स्मृति के हित एक स्थम्भ वहाँ बना कर आनंदपूर्वक आगे बढ़ा। चंद्रावती आदि नगरों के श्रावक वहाँ आकर प्रतिवर्ष स्वामिवात्सल्य और महोत्सव मनाया करते थे । पुनः आप माण्डवपुर व उपकेशपुर में श्रीवीर भगवान के दर्शनार्थ पधारे। वहाँ के श्रावकोंने बहुत मानंद अनुभव किया। चातुर्मास के अन्त में श्रीशत्रुजय के लिये एक संघ रवाना हुआ । रास्ते में कई जिनालयों की यात्रा की। संघ वापस लौटते हुए पाटण या । राजा कुमारपालने श्रावकोंने तथा उस समय वहाँ स्थित सर्व आचार्योंने बड़े धूमधाम से आप का स्वागत किया । आप सर्व गच्छ के प्राचार्यों में अग्रेसर समझे जाते थे।
कुमारपाल नरेश के प्रत्याग्रह से प्राचार्य हेमचन्द्रसूरिने योगशास्त्र की रचना की । इस ग्रंथ के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण के