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समरसिंह
सूरि के करकमलों से हुई थी । इस मन्दिर के प्रति नागरिकों की अटूट श्रद्धा और अनुपम भक्ति थी । लोग द्रव्य एवं भाव पूजा, सेवा और नृत्य आदि के कार्यों में संलग्न रहते थे । इस भक्ति और सेवा का ऐहलौकिक फल के भी वे भोक्ता थे । उनके घर में धान्य और धन से भंडार भरे हुए रहते थे । उस नगर के निवासी गार्हस्थ्य सुख से भी परम सुखी थे । उनके पुत्र कलत्र और मित्र सदाचारी आज्ञाकारी और विश्वासी थे इसीसे उनकी मान मर्यादा तथा प्रतिष्ठा सब तरह से बढ़ी हुई थी । ऐहलौकिक सुखों के साथ साथ पारलौकिक सुख प्राप्त करने के साधन पक्के करने में भी वे लोग तत्पर थे । भगवान की रथ यात्रा के निमित्त उन लोगोंने सुवर्ण - रथे तैयार करवा लिया था । प्रति वर्ष रथयात्रा को महोत्सवपूर्वक निकाल कर नगर के अघों को सहजही में विनष्ट कर देते थे ।
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इस नगर के बीचोंबीच एक रम्य वापी ऐसी कारीगरी से बनाई हुई थी कि जिसकी शिल्पकला की खूबी देखकर दर्शक आश्चर्य चकित होकर आवाक् रह जाते थे । इस वापी की उत्तम शिल्पकला के कारण भारतवर्ष का मस्तक सारे विश्व में सगर्व ऊँचा था । उस वापी की एक विशेषता यह भी थी कि उसके सारे सोपान इस क्रम से बनाए हुए थे कि भले ही कोई किसी प्रकार का संकेत बनाकर वापी में नीचे जावे वापस उसी जगह
१ प्रतिवर्ष पुरस्यान्तर्यत्र स्वर्णमयो रथः ।
पौराणां पापमुच्छेतुभित्र भ्रमति सर्वतः ॥ २७ ( ना० नं० प्र० )