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उपकेशगच्छ-परिचय । पास दीक्षा ली थी। कृष्णर्षि जिस प्रकार शास्त्रज्ञ थे उसी प्रकार जिन-धर्म के परिश्रमी प्रचारक भी थे। आपने जैनेतरों को विपुन संख्या में जैनी बनाया।चक्रेश्वरी देवीकी आपपर विशेष कृपा थी। देवीकी भाग्रहसे आप शास्त्रज्ञान में विशेषज्ञ होनेके अभिप्रायसे चित्रकोट नामक नगर में पधारे थे और वहाँ सकल विद्याओं में पारगामी हुए । तत्पश्चात् विहार करके मरुधरवासियों के सौभाग्य से नागपुर ( नागौर ) नगर में पधारे । नागोर नगर के निवासी, राज्यमान और विशाल-कुटुम्बी नारायण श्रेष्ठि को प्रतिबोध देकर उसके ५०० कुटुम्बी जनों के साथ उसे जैनधर्म की दीक्षा आपने दी। श्रेष्ठिवर्यने गजासे किले के अन्दर की जमीन लेकर जैन मन्दिर तैयार करवाया | जब मन्दिर बनकर तैयार हो गया तब नारायण श्रेष्ठिने अपने धर्म-गुरु कृष्णर्षि को आमंत्रित किया कि आप इस मन्दिर की प्रतिष्टा करावें । इस पर कृष्णर्षिने उत्तर
१ ततः कृष्णर्षिणा---देवी चक्रेश्वरी गिरा । चित्रकुटपुरे गत्वा विनेय कोऽपि पाठितः ॥ स सर्व विद्याः श्रीदेवगुप्ताख्यः स्थापितो गुरुः ।
स्वयं गच्छ वाहकत्वं पालयामास सादरः ॥ २ श्री देवगुप्ते गच्छस्य भारं निर्वाह यत्पथ ।
कृष्णर्षिः श्री नागपुरे :विहरनन्यदा ययौः ॥ तत्र नारायण श्रेष्टि श्रुत्वा तद्धर्म देशनां । प्रतिबुद्ध कुटुम्ब.....................शतें ॥ व्यजिज्ञ पद सौजातु कूष्णार्षि भगवन्नहं । कारयामित्वदादेशात्पुरेस्मिन् जैन मन्दिरं ॥२१॥
उ० ग० च०