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उपकेशगच्छ-परिचय।
उस समय उपकेश गच्छाचार्य श्रीकक्कसूरि के पट्टधर सिद्ध. सूरिजी थे जो अनेक विद्याविज्ञ थे । ये लब्धी से भी भूषित थे। एकदा जब आप पाटण पधारे तब श्रेष्ठिवर्य कदपीने आप के परामर्श से ४३ अंगुल प्रमाण स्वर्णमय चरम जिनेश्वर की मूर्ति बनवाना निश्चय किया । इस कार्य के लिये सूत्रधारों को एकत्र कर यह कार्य प्रारम्भ करवा दिया गया । शुभ कार्यों में विघ्न उपस्थित होते ही हैं। एक घटना इस प्रकार हुई कि उस नूतन बनाया मन्दिर के समीप ही भावड़ारकगच्छीर्य वीरसूरि का एक मन्दिर तथा उपाश्रय था और जिस में वे रहा करते थे । न जाने क्यों वीरसूरि के हृदय में इर्ष्याने घर कर लिया । जब इधर मूर्ति ढालने के लिये स्वर्ण पिघाला गया तो वीरसूरिने अपने मंत्रों के प्रभाव से वृष्टि का आविर्भाव कर दिया जिसके कारण सुवर्ण संचेमें नहीं ढाला सके । इस प्रकार की बाधा एक बेर ही नहीं निरंतर दो तीन बार उपस्थित हुई । कदी बहुत असमंजस में पड़ गया
और इस समस्या को हल कराने के उद्देश्य से उपाय पूछने के लिये आचार्य श्री सिद्धसूरिजी के समक्ष गया। कदीने कहा कि
१ भावडारकगच्छीयं तत्कपर्दि जिनोकसः
समीपे पूर्व निष्पन्न विद्यते देवमंदिरं ॥३०१॥ तस्याचार्यो वीरसूरिः सोमर्षवहतीतियन् नवेना नेन पूर्वस्य भविता पद्गावोननु ॥३२॥
ना० नं. उ०
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