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समरसिंह
बुरे विचार रखता
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कि जब यह दुष्ट आप से आचार्यो के लिये ऐसे है तो फिर अन्य मुनियों के विषय में तो न जाने क्या कलंक लगाता होगा। आचार्यश्रीने कहा कि देवी खमोस करो । अब इस की सुधि लेना चाहिये । इस की कुटिलता का यथेष्ट दंड यह भुगत चुका है । परन्तु देवीने नम्रता पूर्वक उत्तर दिया कि ऐसा नहीं होगा | आचार्यश्रीने पुनः अनुरोध किया तो देवीने कहा कि यदि आप की इच्छा है कि सोमक का कष्ट दूर हो जाय तो मैं यह कार्य इस शर्त पर करने को उद्यत हूं कि भविष्य में मैं कभी भी प्रत्यक्ष रूप से प्रकट न होऊंगी । गच्छ के कार्य के लिये मैं परोक्ष रूप से ही प्रबंध करदूंगी । आचाश्रीने भी यही उपयुक्त समझा क्योंकि समय ही ऐसा आनेवाला था । सूरिजी की आज्ञानुसार देवीने तुरन्त सोमक की मूर्छा को दूर कर दिया ।
सर्व संघ की अनुमति से यह प्रस्ताव स्वीकृत उसी दिन से हो गया कि अब भविष्य में आचार्यों के नाम रत्नप्रभसुरि और यक्षदेवसूरि नहीं रखे जाँय । अतः इस के पश्चात् श्राचायों के नाम की परम्परा इस प्रकार प्रचलित हुई कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि । जो आज तक चली आ रही है । अस्तु |
इस समय उपकेश गच्छोपासक २२ शाखाओं के मुनिगणों के नाम के उत्तरार्ध भाग में सुन्दर, प्रभ, कनक, मेरु, सार, चन्द्र, सागर, हंस, तिलक, कलश, रत्न, समुद्र, कल्लोल, रंग, शेखर, विशाल, राज, कुमार, देव, आनंद और आदित्य तथा कुंभ आदि