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श्रेष्ठिगोत्र और समरसिंह |
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विक्रमकी छट्ठी शताब्दी में कक्कसूरि नामक एक बड़े प्रतापी आचार्य हुए जिन्होंने एकबार विहार करते हुए मेरुकोटनगर में पदार्पण किया । उस नगरका महान् बली काकू नामक राजा अपने पुराने किलेका जिणोंद्धार करवा रहा था उसके खोदने के काम में भगवान् नेमीनाथ की एक मूर्ति निकली | जब इस बात का पता आचार्य श्री को हुआ तो आप श्रावकवर्ग सहित जिनबिम्ब दर्शनार्थ पधारे । उस अवसरपर राजाने आचार्यश्री से यह प्रश्न किया कि यह निमित्त मेरे लिये किस प्रकार का है । आचार्य श्रीने कहा कि इससे अधिक सौभाग्य का चिह्न और क्या हो सकता है कि साक्षात् जिसके यहाँ परमेश्वर की प्रतिमा प्रकट हो । यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ | जब श्रावक मूर्त्ति ले जाने लगे तो राजाने इन्कार कर दिया और अपने ही व्यय से राजाने किले के भीतर ही एक जिनालय तैयार करवा लिया । इस मन्दिर को बनवाने के लिये राजाने दूर दूरसे चतुर कारीगर बुलवाए थे । यह मन्दिर तात्कालीन शिल्पकला का सर्वोत्तम नमूना था इसकी रचना
१ अथ श्री विक्रमादित्यात्पंचवर्ष शतैर्यतैः । साधिकैः श्रीककसूरि गुरु रासीद्गुणोत्तर ॥ तदाश्री मरुकोट्टस्य वीक्ष्यवप्रं पुरातनं । दृढ़ पृथुं कर्तुममा जोइया त्वय संभवः ॥ काकुनामा मंडलिको बलवान् बलवृद्धये । शुभेलग्ने शुद्धभूमौ गर्तापुरमखानयत् ॥ खन्यमाना ततो कस्मान्निस्ससार जिनेशितुः । बिश्री नेमिनाथस्य वीक्षितं मुमुदेनृपः ॥