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समरसिंह। याचक पाता था वह मुंह माँगा द्रव्य पाकर अपने दारिद्र को सदैव के लिये दूर कर देता था। गृहकार्य और व्यापारिक क्षेत्र में भाशातीत सफलता प्राप्त करके नागेन्द्र ने परम ख्याति प्राप्त की थी तथा वह-राजा और प्रजा-सब का माननीय था।
जिनदेव एक बार रात्रि के समय यह विचार करने लगा कि सांसारिक मोहजाल के वशीभूत होकर मैंने दीक्षा प्राप्त करने योग्य युवानी की वयस को यों ही खो दिया परन्तु ' जागे तब ही से सबेरा' अब भी मुझे उचित है कि नागेन्द्र कुमार को पूछ कर मेरी उपार्जित दौलत को धार्मिक कार्यों में व्यय कर संसार में रहते हुए भी कुछ सुकृत कर पुण्य प्राप्त करने के साधन प्राप्त करलूँ। ऐसा विचार कर उसने अपने पुत्र नागेन्द्र को बुलाया और अपनी सारी इच्छा उसके सामने प्रकट की । नागेन्द्रने तत्क्षण प्रत्युत्तर दिया कि पिता की सम्पत्ति भोगना पुत्र के लिये ऋण है । यदि आप अपनी सम्पदा धर्म के कार्यों में व्यय करते हैं तो मैं ऋण से उन्मुक्त होता हूँ। ऐसा पुत्र हितैषी पिता विरला ही होगा जो अपने पुत्र को किसी प्रकार का ऋणी न बना जावे । अतः आप प्रसन्नतापूर्वक सुकृत में द्रव्य व्यय कीजिये ।
__पुत्र की अनुमति प्राप्तकर जिनदेव, आचार्य श्री कक्कसूरिजी की सेवा में उपस्थित हुआ और द्रव्य किस क्षेत्र में व्यय किया जाय इस विषय में सम्मति पूछी। आचार्यश्रीने भी उचित परामर्श दिया । जिनदेवने क्रोडों रुपये धार्मिक क्षेत्रों में व्यय किये । एक