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समरसिंह ।
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उपदेश दिया कि राजाने तुरन्त जैनधर्म स्वीकार कर लिया । चित्रांगद की श्रद्धा जिन-धर्मपर इतनी दृढ़ हुई कि उसने आचार्यश्री के सदोपदेश से श्री महावीरस्वामी का एक भव्य मनोहर मन्दिर बनवाया । उसने स्वर्ण की महावीर मूर्त्ति बनवाकर देवगुप्तसूरि के कर-कमलोंद्वारा उसकी प्रतिष्टा करवाई । धन्य है ऐसे महान् उद्योगी धर्मप्रचारक श्राचार्यवरों को कि जिन्होंने राजा महाराजों को प्रतिबोध देकर जैन बनाने के कार्य में इस प्रकार तत्परता प्रकट की ।
कुछ समय बीते पीछे इस गच्छ में यक्षदेवसूरि नामक बढ़े ही शक्तिशाली आचार्य हुए । विहार करते हुए वे एकदा मुग्धपुर नगर में पधारे | देवद्वारा इन्हें पहले ही ज्ञात हो गया कि 1 इस नगर की और म्लेच्छ आक्रमण करनेवाले हैं । संघ को सावधान कर, दो साधुओं को मन्दिर और मूर्त्तियों की रक्षार्थ नियुक्त कर आप कायोत्सर्गार्थ बनमें पधारे ध्यानावस्थित हो गये । होनहार के अनुसार ममीचीं नामक म्लेच्छ की अधीनता में पामरों ने मुग्धपुर पर धावा बोलदिया । फिर क्या था ? वे लगे मन्दिर
१ तदत्वयं देवगुप्ताचार्य यैः प्रतिबोधितः । श्रीकन्यकुब्ज देशस्य स्वामि चित्रांगदाभिधः । स्व राजधानी नगरे स्वर्ण बिम्ब समन्वितं । यो कारय जिनगृहं देवगुप्त प्रतिष्ठितं ।
- (उ. चा. श्लोक ८५, ८६ )
२ तत पुनर्यदेवसूरयः केचताभवन् ।
विहरंत क्रमेण (.....) स्त मुग्धपुरे वरे ॥