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समरसिंह। प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरिजीने उपकेश वंश स्थापित कर महाजन संघ बनाया तो महाराजा उपलदेव को, जो उस समय वहां के राजा थे और जिन्होंने अपना शेष जीवन धर्म प्रचार के लिये ही अर्पित कर दिया था, श्रेष्ठ समझ कर उन्हें श्रेष्ठि गोत्र प्रदान किया गया था। तब से महाराजा उपलदेव के वंशज शेष्ठिगोत्रिय के नाम से विख्यात हुए।
श्रेष्ठिमोत्र वालों की भी हर प्रकार से अभिवृद्धि हुई। वृद्धि होने के कारण विशेष विशेष घराने शाखा प्रशाखा के नाम से प्रसिद्ध होते हुए भारतवर्ष के कोने कोने में फैल गये । इस गोत्रवालों पर सरस्वती और लक्ष्मी दोनों ही की खूब दया रही। ये जगह जगह मंत्री आदि राजकीय उच्च पदों पर नियुक्त होकर राजतंत्र चलाने में विशेष कुशल थे । व्यापार के क्षेत्र में भी श्रेष्ठि गोत्रवालोंने आशातीत सफलता प्राप्त कर व्यापार के मुख्य मुख्य केन्द्रों में भी अपना विशेष सिक्का जमाया । इनकी धवल कीर्ति दिनों दिन उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती रही । राजकीय व्यवस्था करने में विशेषज्ञ तथा सिद्धहस्त और इष्ट की दृढ़ता होने के कारण इस गोत्र के वंशजों को राज्य की ओर से सम्मान सूचक " वैद्य मुहत्तों" का इलकाब प्राप्त हुभा। जिस नाम से यह गोत्र आज तक प्रसिद्ध है।
विक्रम की बारहवीं शताब्दी में उपर्युक्त उपकेश वंश के
१ इस ग्रन्थ के लेखकने भी इसी गोत्र में जन्म लिया था।