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समरसिंह । सिद्धराज जयसिंह के उत्तराधिकारी परमाहत् महाराजा कुमारपालने बड़े धूमधाम से इस तीर्थ की यात्रा की । इन बातों के उल्लेख उस समय के बने हुए ग्रंथों में पाए जाते हैं । सिद्धराज के महामंत्री उदायन का अन्तिम मनोरथ यह था कि शत्रुजय तीर्थ का उद्धार हो । उस की यह इच्छा पूर्ण करनेवाला उस का ही
१ "अह जिणमहिमं काउं अवयरिए खेयाओ सयलजणे । चलिओ कुमारवालो सत्तुंजयतित्य नमणत्यं ॥ पत्तो तत्थ कमेणं पालिताणंमि कुणइ आवास । अह कुमर नरिंदो हेमरिणा जंपिनो एवं । पालिताणं गामो एसो पालित्तयस्स नामेण । नागज्जुणेण ठविओ इमस्स तिथस्स पुज्जत्थं । पुहइपइठाण भस्यच्छ-भन्नखेडाइ निवइणो जं च ।
धम्मे ठविया पालितएण तं कित्तियं कहिमो ?" -वि० सं० १२४१ में सोमप्रभाचार्य द्वारा पाटण में रचित तथा गा. प्रो. सीरीज बड़ौदे से प्रकाशित कुमारपाल प्रतिबोध नामक ग्रंथ के पृष्ठ १७९ से ।
कृतज्ञेन तत्स्तेन विमलाद्रिरुपत्यकाम् । गत्वा समृद्धि भाक् चके पादलिप्ताभिधं पुरम् । अधित्यकायर्या श्रीवीर प्र'तमाधिष्ठितं पुरा। चैत्यं विधापयामास स सिद्धः साहसीश्वरः॥ गुरुमूर्ति च तवास्थापयत् तत्र च प्रभुम् ।
प्रत्यष्ठापयदाहुयाईद्धिम्बाण्य पराण्यपि ॥" -वि० सं० १३३४ में श्रीप्रभाचन्द्रसूरि रचित तथा निर्णयसागर प्रेस, बंबई से प्रकाशित 'प्रभावक चरित्र ' ग्रंथ के पृष्ठ ६५ और ६६ के श्लोक २९९ वां से ३०१ वाँ ।