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शत्रुंजय तीर्थ ।
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सुपुत्र हुआ जिस का नाम बाहड़देव (बाग्भट) हुआ जो कुमारपाल का महामत्य था । उसने श्रीशत्रुंजय तीर्थ का उद्धार करा अपने पिता के मनोरथ को पूरा किया । इस उद्धार में मंत्रीश्वरने एक क्रोड़ और साठ लाख मुद्राऐं व्यय कीं । पं. सोमधर्म गणि विरचित उपदेश सप्ततिका में ऐसा उल्लेख है कि इस उद्धार में दो क्रोड़ सतानवे लक्ष मुद्राएँ व्यय हुई | यदि इतना द्रव्य उन्होंने ऐसे शुभ कार्यों में व्यय किया तो कोई विस्मय की बात नहीं कारण लाख या क्रोड़ की तो क्या बिसात उन्होंने तो अपना सर्वस्व तक ऐसे पुनीत कार्यों के लिये अर्पित कर दिया था ।
मरुभूमि के नररत्न वीर भैंसाशाह का वर्णन सब इतिहासकारों को विदित है । इनकी मातुश्रीने श्री शत्रुंजय की यात्रार्थ एक वृहद् संघ निकाला था । यह घटना वि. संवत् १९०८ की है । उस श्राविकाने श्री तथाधिराज की यात्राके निमित्त इतना
१ श्रीमद् वाग्भट देवोऽपी जीर्णोद्धारमकारयत् । सदेवकुलिकस्यास्य प्रासादस्याति भक्तितः ॥
शिखीन्दुः रविवर्षे १२१३ च ध्वजारोपे व्यधापयत् । प्रतिमां सप्रतिष्टां स श्रीहेमचन्द्र सूरिभिः ।
- वि० सं० १३३४ में रचित ग्रंथ ' प्रभावक चरित्र' के पृष्ठ ३३६ के श्लोक नं. ६७० और ६७२.
षष्टिलक्षयुक्त्ता कोटी व्ययिता यत्र मन्दिरे ।
स श्री वाग्भटदेवोऽत्र वर्णयते विबुधैः कथम् ? ॥
- प्रबंध चिंतामणी के सर्ग चतुर्थ के पृष्ठ २२० से
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