________________
समरसिंह। उडीसा प्रान्त की हस्ति गुफा में प्राप्त हुआ है । यह लेख विक्रम पूर्व की दूसरी शताब्दि में कलिंगपति महामेघवाहन चक्रवर्ती जैन सम्राट् श्री खारवेल नरेश का खुदवाया हुआ है । उस में खुदा हुआ है कि " वेनामि विजयो" अर्थात् महाराजा खारवेल वेन राजा की तरह विजेता हो । अब यह प्रश्न होता है कि यह बेन राजा कौन था । इस का प्रमाण पद्मपुराण में मिलता है। राजा वेन किसी वर्ण और जाति पांति को नहीं मानता था अतः उसे 'जैन ' की संज्ञा जैनेतरोंने दी थी। इस से सम्यक् प्रकार से सिद्ध होता है कि जैनियोंने ही सब से प्रथम वर्ण और जाति की हानिकारक शृङ्खला को तोड़ने का प्रयत्न किया था। यही कारण है कि जिस में जैन धर्मावलंबियों में ब्राह्मण और क्षत्रियों का सम्मिलित होना पाया जाता है।
भगवान महावीर स्वामी के पश्चात् आचार्य श्रीस्वयंप्रभसूरि हुए। ये आचार्य, श्रीपार्श्वनाथ भगवान के पांचवे पट्टपर थे। १ केशिनामा तद्विनेयः यः प्रदेशि नरेश्वरम् । प्रबोध्य नास्तिकाद्धर्मी जनधर्मेऽध्यरोपयत् ॥ १३६ ॥ तच्छिष्याः समजायन्त श्रीस्वयंप्रभसूरयः । विहरतः क्रमेणेयुः श्रीश्रीमालं कदापिते ॥ १३ ॥ तस्थुस्ते तत्पुरोद्याने मासकल्पं मुनीश्वराः ।
उपास्यमानाः सततं भव्यैर्भवतरुच्छिदे ॥ १३८॥ . ( नाभिनन्दनोद्धार प्रबंध )
-भायार्य स्वयंप्रभसरि के विषय में विशेष खुलासा देखो सचित्र जैनजातिमहोदय प्रकरण तीसरा. पृष्ट १६ से ४.. तक ।