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शजय तीर्थ । मुक्ता सम्राट सम्प्रति महामेघ बाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल, देशोद्धारक शालीवाहन, और न्यायप्रिय महाराजा विक्रम प्रभृति बड़े बड़े नृप तथा बड़े बड़े धनी मानी दानी सेठ साहूकार आदि ४० क्रोड़ जन समुदाय इस पवित्र तीर्थ की शीतल छत्रछाया में रह अपने भात्मकल्याण में निरत रहता था । कइयोंने बड़े बड़े संघ निकाल कर इस तीर्थ की यात्रा की थी। इस के उद्धार आदि कराने में इतना विपुल द्रव्य व्यय किया गया कि जिसकी गिनती लगाना हमारे लिये तो क्या बरन् बृहस्पति आदि देवतामों के लिये भी कठिन है। जैनों का ऐसा कोई वंश, कुल, जाति या गोत्र न होगा जिस के व्यक्तियोंने प्रचुर द्रव्य व्यय कर संघ निकाल कर इस तीर्थ की यात्रा का अपूर्व लाभ न उठाया हो । यात्रा के साथ साथ भक्ति कर के अपने मानव जीवन को सबने सफल किया था।
विक्रम सं० १०८ में भावड़शाह के एक पुत्ररत्न जावड़शाह हुए हैं। भावड़शाह स्वयं भी एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं जिन्हों
१ संपइ-विक्कम-बाहड-हाल-पालित दत्तरायाइ । जं उद्धरिहिंति तयं सिरिसत्तजयं महातित्थं ॥-धर्मघोषसूरिकृत शत्रुजयकल्पसे ।
२ “ विक्रमादित्य तस्तीर्थे जावडत्य महात्मनः । अष्टोत्तर शताब्दान्ते भावि न्युद्धतिरुत्तमा ॥" धनेश्वर सूरिकृत शजय महात्म्य के सर्ग १४ का श्लो० २८० अष्टोत्तरे च किल वर्षशते व्यतीते श्री विक्रमादथ बहु द्रविण व्ययेन । यत्र न्यवीविशत जावडिरादिदेवं श्रीपुण्डरीक युगलं भवभीतिभेदि-वि० सं० १५१७ में भोजप्रबंध वि० रचनेवाले रत्नमंदिरगणिन्दी कृत उपदेश तरंगिणी (पृ. १३२)