Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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१०
पुण्यावकथाकोशम्
[ १-४ :
याताः' इति । तर्हि तत्स्वरूपं मे प्रतिपादय । प्रतिपाद्यते शृणु । तथाहि-- हे कन्ये, भाद्रपदाश्विनकार्तिकमार्गशिरपुष्यमाघफाल्गुनचैत्रमासानां मध्ये कस्यचिन्मासस्य शुक्लपञ्चम्याम् उपवासपूर्वकं पूर्वाद्धं प्रारभ्य यामे यामे चतुर्विंशतितीर्थंकरप्रभृतीनाम् अभिषेक पूजां विधाय चतुर्विंशतितण्डुलपुञ्जकान् जिना कृत्वा यक्षिदेव्याः द्वादशपुञ्जन् कृत्वा प्रदक्षिणीकुर्वन् तीर्थ करनामपूर्वकं पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । कथम् । तथाहि-
त्रिदशराजपूजितं वृषभनाथमूर्जितम् । कनक केतकैर्यजे भवविनाशकं जिनम् ॥ १ ॥ अजितनामधेयकं भुवनभव्य सौख्यकम् । विदितचम्पकैर्यजे भव० ॥२॥ सकलबोधसंयुजं " तमिह संभवं यजे । सुरभिसिन्दुवारकैर्भव० ॥३॥ वरगुणौघसंयुजं तमभिनन्दनं यजे । बकुलमालया सदा भव० ॥४॥ सुमतिनामकं परैः सुरभिवृक्षपुष्पकैः । वरगणाधिपं यजे भव० ॥५॥ त्रिभुवनस्य वल्लभं विदितमम्बुजप्रभम् । नवसिताम्बुजैर्यजे भव० ॥६॥
सुपार्श्वनामरहितघातिकर्मकम् । बहु यजे हि पाटलैर्भव० ॥७॥ 'विहितमुक्तिसौख्यकैः सुरभिनागचम्पकैः । वरशशिप्रभं यजे भव० ||८|| सकलसौख्यकारकैः सुशतपत्रदामकैः । सुविधिनामकं यजे भव० ॥६॥
कहा- तो उस व्रतका स्वरूप मेरे लिए बतलाइए । यक्षीने कहा- बतलाती हूँ, सुनो । हे कन्ये ! भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशिर, पुष्य, माघ, फाल्गुन और चैत्र इन मासों के मध्य में किसी भी मास की शुक्ल पंचमी दिन उपवासपूर्वक पूर्वाह्न कालसे प्रारम्भ करके प्रत्येक प्रहर में चौबीस तीर्थंकरों आदिके अभिषेक व पूजाको करके चौबीस तंदुलपुंजोंको जिनेन्द्रोंके आगे करके तथा बारह पुंजोंको यक्षिदेवीके आगे करके प्रदक्षिणा करते हुए तीर्थंकरोंके नामनिर्देशपूर्वक पुष्पांजलिका क्षेपण करे । वह किस तरहसे करे, इसका स्पष्टीकरण करते हैं
जो वृषभनाथ जिनेन्द्र इन्द्रोंसे पूजित, तेजस्वी ( या अतिशय बलशाली ) और संसारके विनाशक हैं उनकी मैं कनक (चम्पा या पलाश) व केतकी के फूलोंसे पूजा करता हूँ ॥१॥ मैं लोकके समस्त भव्य जीवोंको सुख देनेवाले एवं संसारके नाशक अजित नामक जिनेन्द्रकी विदित चम्पक पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ||२|| मैं यहाँ केवलज्ञान से संयुक्त होकर संसारको नष्ट करनेवाले उन सम्भवनाथ जिनेन्द्रकी सुगन्धित सिन्दुवारक ( श्वेतपुष्प ) पुष्पोंसे पूजा करता हूँ || ३ || जो अभिनन्दन जिनेन्द्र उत्तमोत्तम गुणोंके समूहसे सहित तथा संसारके नाशक हैं उनकी मैं बकुलपुष्पों की माला से पूजा करता हूँ || ४ || जो सुमति जिनेन्द्र चातुर्वर्ण्य संघ ( अथवा गणधरों ) के अधिपति होकर संसारके नाशक हैं उनकी मैं उत्कृष्ट सुरभि वृक्षके फूलोंसे पूजा करता हूँ || ५ | | कमलके समान कान्तिवाले जो पद्मप्रभ जिनेन्द्र तीन लोकके प्रिय एवं संसार के नाशक हैं उनकी मैं उत्तम श्वेत कमलोंके द्वारा पूजा करता हूँ || ६ || जो सुपार्श्व नामक जिनेन्द्र लोकमें घातिया कर्मोंसे रहित होकर संसारके नाशक हैं उनकी मैं पाटल पुष्पोंसे बहुत पूजा करता हूँ || ७|| मैं मुक्तिसुखको करनेवाले सुगन्धित नागचम्पक फूलोंसे उत्कृष्ट चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र की पूजा करता हूँ। वे जिनेन्द्र संसार के नाशक हैं ||८|| मैं समस्त सुखको उत्पन्न करनेवाले उत्तम कमलपुष्पों की मालाओंसे संसारके नाशक सुविध
१. पूर्वा । २. प श प्रभृतीनां । ३. श जिनाकृत्वा । ४. प श द्वादशपुञ्जकान् प्र० । ५ प संयुजे, संयुते । ६. प संयुजे, फ संयजे । ७. श घात । ८. शविहत ।
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